Tuesday, February 15, 2011

मंटो को पढ़ते हुए


डाकिए की ओर से: शीन काफ निजाम ने मंटो पर विशेष अध्यन किया है. इत्तेफाक से वे मेरे पसंदीदा शाइर भी हैं। उनकी गज़ल संग्रह 'सायों के साये में' मेरी पसंदीदा है। सन् 2002 के अंधेरे में इस किताब ने बहुत सहारा दिया था। ज्ञातव्य हो कि इसी बरस उन्हें उर्दू अदब के क्षेत्र में साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला है।

*****

मंटो को उर्दू का मोपासाँ कहा गया है लेकिन मुहम्मद हसन अक्करी ने लिखा है:
"अगर मंटो मोपासाँ के बराबर नहीं पहुंच सका तो इस में इतना क़सूर खुद मंटो का न था जितना उस अदबी-रिवायत का, जिसमें वह पैदा हुआ। जिस बात में मंटो ‘मोपासाँ से पीछे रह जाता है, वह मोपासाँ का गद्य है।"

इन परम्पराओं में एक फर्क तो यही है कि एज़रा पाउण्ड शाइरों को मोपासाँ का पढ़ने की सलाह देते हैं जबकि उर्दू में प्रामाणिक या मानक भाषा काव्य की है। दूसरा फर्क यह है कि मोपासाँ को वाल्तेयर और फ्लाबेयर जैसे रचनाकारों का ग़ मिला था और मंटो को मिला था दास्तानवी गद्य, जो श्रव्य-गद्य का लिखित रूप् था। 

मंटो तक पहुंचते-पहुंचते उर्दू कहानी भी वक्त बिताने के बजाय वक्त बचाने का हुनर हो गई थी। वह बताने में छिपाने और छिपाने में बचाने का आर्ट सीख रही थी। फिर मंटो तो पाठक पर भरोसा करने वाला, संवेदनशील लेखक था। कहता था, क्या ही अच्छा होता, अगर आदमी लिखे बगैर अपने खयालात दूसरे तक पहुंचा सकता। विभाजन के बाद पाकिस्तान पहंुच कर वह अफसाने नहीं, लेख लिखता है इसलिए कि वह इस कला-रूप को बहुत संगीन समझता है। वह चाहता था कि कथा-भाषा में कोई लफ्ज गैर जरूरी न हो। पाकिस्तान में वह पहला अफसाना ठण्डा गोश्त लिखता है और दूसरा खोल दो। खोल दो का एक अंश है:

"रंग गोरा है और बहुत खूबसूरत है। मुझ पर नहीं थी अपनी मां पर थी। 
उम्र सत्रह के करीब थी..... मेरी इकलौती बेटी है। "

पहला वाक्य है पर खत्म होता है। दूसरा थी पर तो तीसरा है पर। यह संदेह और विश्वास, आशा और निराशा के बीच झूलते बूढ़े असहाय बाप की मनःस्थिति है, क्रिया-प्रयोग का दोष नहीं। सिराजुद्यीन यह तक भूल गया है क रज़ाकारों ने न उसकी बीवी को देखा है, न वो उसकी बेटी को पहचानते हैं। काहनी लाख उपमा का आर्ट हो, लेकिन उपमा में दो में से एक की जानकारी जरूरी है। कहानी के अंत में, सकीना की हरकत पर सिराजुद्यीन न आंखे बंद करता है, न मुंह फेरता है और न सर पीटता है, बल्कि खुशी से चिल्लाता है। पसीने में गर्क़ तो उस समाज को होना चाहिए न जो सकीना का है! दृष्टव्य है कि सकीना के साथ दुव्र्यवहार भारत के स्वयंसेवकों ने नहीं, पाकिस्तान के रज़ाकारों ने किया है। ठण्डा गोश्त में वह ईशर सिंह - सिक्ख - की इंसानियत को उजागर करता है। पाकिस्तानी समाज को यह नागवार गुज़रता है और मुक़दमा चलता है। 

मंटो के किरदार बुरे हैं, परन्तु वे बुराई के बावजूद अच्छे लगते हैं अच्छाई उन के लिए ओढ़ने की नहीं, बरतने की चीज़ है। ये चरित्र प्यार चाहते हैं, सहानुभूति नहीं। हतक की सौगन्धी ग्राहक के सामने स्वयं को सम्पूर्ण समर्पण के साथ प्रस्तुत करती है, इसलिए कि उसमें प्रेम करने की अहलियत भी है और निबाहने की सलाहियत भी। झूठे-सच को जानते हुए भी उसने दीवार पर चार मर्दों के चित्र टांग रखे हैं। 

मंटो की तवाइफें कोठे पर नहीं, कोठरीनुमा कमरों में रहती हैं। वहां लोग तमीज़ सीखने नहीं, जिस्म की जिजारत के लिए जाते हैं। उनमें फरेबकारी नहीं, शराफत है। शिकायत नहीं, हालात से निपटने की सकत है। 

मंटो के पात्रों के नाम और चीज़ों की हरकत तथा रंग भी ध्यान देने योग्य है। मिसाल में हतक ही को लें। सौगन्धी नाम है पात्र का। उर्दू में सुगन्ध भी इसी तरह लिखा जाएगा। इसे सौ गन्धी भी पढ़ा जा सकता है। कई स्थानों पर वेश्या को सौ गन्धी कहते हैं। अगर इसे सुगन्धि पढ़ें जो उर्द लिपि में संभव है, तो इसका अर्थ होगा पुण्यात्मा, धर्म पर रहना आदि। एक पात्र है माधव, जिसका एक अर्थ वसन्त भी है - अब यह वाक्य देंखे, 

"उसे (सौगन्धी को) महसूस होने लगा कि उसे माधव की जरुरत है। "

कुत्ता, इस्लाम की मान्यता के अनुसार त्याज्य है। महाभारत में इन्द्र युधिष्ठिर से कहते हैं, कुत्ते रखने वालों के लिए स्वर्ग में कोई स्थान नहीं है। अफसाने की रूह में ऐसे अनेक संभावित अर्थ छिपे हैं। इसी तरह सिराजुद्यीन का अर्थ धर्म का दिया है तो सकीना हज़रत इमाम हुसैन, जो कर्बला में शहीद हुए, की बेटी का नाम है। तोता, खुजली वाला कुत्ता, कुत्ते का भौंकना, तोते का चुप रहना आदि अनेक स्थल विचारणीय हैं। 

मंटो कहता था, दुनिया को समझाना नहीं चाहिए उस को खुद समझना चाहिए। कलात्मक समझ पर जब तक भरोसा रहेगा, मंटो जैसे लोग प्रासंगिक रहेंगे। 
उर्दू के विख्यात शायर एवं आलोचक 
साभार : वाक्देवी प्रकाशन 

4 comments:

  1. सच पूछो तो मै मंटो को खुदा नहीं बनाना चाहता ....शायद मंटो को भी ये गवारा नहीं होगा.....न उनके लिखे का लम्बे चौड़े तौर पर तजुर्मा करना ....जैसे देख रहा हूँ लोग प्रेमचंद की कहानियो का पोस्ट मार्टम अपने अपने चाकुओ से कर रहे है ...नुकीले....बारीक ...पोलिश्ड चाक़ू .....
    दरअसल हर लेखक अपने वक़्त की एक जरुरत होता है ओर साहित्य की भी.....ओर कर्षण चंदर की भी हमें इतनी ही जरुरत है....राजेंदर सिंह बेदी भी....
    राजेन्द्र यादव ने कहा था ...मंटो कहानिया लिखकर अमर हो गए ....बगैर कोई उपन्यास लिखे ....
    गुलज़ार साहब ने कहा था ....मंटो बड़े काबिल आदमी थे ...बस अपने साथ थोड़े नाकाबिल रहे उम्र भर.......
    खैर जीनियस लोग ऐसे ही होते है थोड़े सर फिरे...

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  2. क्या कहूँ अपनी तो समझदानी ही छोटी है. मुझे ऐसा लग रहा है कि कोई आदमी किसी सुन्दर औरत के सौंदर्य का रसपान करने कि बजाये उसके एक्स रे पर मगज मारी कर रहा है.

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  3. aadarniye manto sahab ki har rachna,samaj ka vastvik chitaran karti hai veh is maasal deh or mansik vikrati ki sidhi sapast abhivaykti hai, aaiyne the vo jo seha shabdo se sahi tasveer dikha dete the.

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  4. बहुत अच्छी प्रस्तुति. पोस्ट पसंद आई.

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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