आज निर्मल के जन्मदिन पर उन्हीं की डायरी से उनके जन्मदिन पर लिखा हुआ एक अंश प्रस्तुत है। कुछ और टुकड़े भी हैं जिन्हें कभी, किसी मूड में नोट किया गया था।
३ अप्रैल, १९८३:
मैं आज ५६ का हो गया।
भीतर सुबह से ही एक गहरा अवसाद घिर आया है।
यह दिन भी भोपाल में गुज़ारना था।
कुछ लेख, दो मुकम्मिल कहानियाँ, एक अधूरी कहानी, बस इतना ही।
चेखव याल्टा में बीमार थे, गुलाब लगाते थे, नाटक और कहानियाँ लिखते थे। बहुत कम बोलते थे। अकेले रहते थे। A lady with a dog जैसी कहानी वही और वही लिख सकते थे। पता नहीं, आज के दिन वह क्यों इतना याद आ रहे हैं।
पिछले वर्ष में अन्तिम दिनों में के रहस्यमय चिन्ह-signs and signals-वे मुझे दिखते रहे हैं। सच पूछो तो मेरे साथ कुछ अच्छा घटा, तो सिर्फ़ वही। वे उन दोस्तों की तरह हैं, जो कन्धे पर हाथ रखकर कहते हैं – चलें?
मैं चलने के लिये तैयार बैठा हूँ।
अगर हम अपने को उन पर छोड दें, तो वे हमें सच्चाई के रास्ते पर ले जाएँगे, चाहे वह कितनी भयावह क्यों न हो। हमारे जीने के अदृश्य पहरेदार। जब हम पीछे छूट जाते हैं, प्रलोभन में फ़ँस जाते हैं, नशे और निद्रा में अपने को खो देते हैं, तो वे पीछे मुड़कर आते हैं, धीरे से हमें हिलाते हैं – चलें?
वे हमेशा से यहाँ हैं।
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सूर्यास्त पर:
“सूरज की इस आखिरी हिचकी में कुछ इतनी भयानक उदासी, इतना ट्रैजिक विलाप है कि हम सहसा आँखे मोड़ लेते हैं, ताकि उसे मरना है तो अकेला मर सके – बहुत देर तक पता भी नहीं चलता कि वह डूब गया है, पहाड़ों के पीछे गिर गया है, क्योंकि बादलों पर चमक अब भी रेंग रही है जैसे मृत्यु के बाद भी कुछ देर तक देह पर गुज़री हुयी ज़िंदगी के चिन्ह बचे रहते हैं – गरमाई, होठों पर मुस्कुराहट, आँखों में जमा असीम विस्मय।
पता नहीं, इस धरती पर अब तक कितने सूर्यास्त हुये होंगे – हर एक दूसरे से अलग।”
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“एक ज़िंदगी जो बीच में कट जाती है अपने में सम्पूर्ण है। उसके आगे का समय उसके साथ ही मर जाता है जैसे उम्र की रेखा – वह चाहे कितनी लम्बी क्यों न हो – मृत हथेली पर मुरझाने लगती है। क्या रिश्तों के साथ भी ऎसा होता है जो बीच में टूट जाते हैं? हम विगत के बारे में सोचते हुये पछताते हैं कि उसे बचाया जा सकता था, बिना यह जाने कि स्मृतियाँ उसे नहीं बचा सकतीं, जो बीत गया है। मरे हुये रिश्ते पर वे उसी तरह रेंगने लगती हैं जैसे शव पर च्यूँटियाँ।”
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“हवा में डोलते चेरी के वृक्ष और वह कॉटेजनुमा घर, जहाँ हम इतने दिन बुदापेस्ट में रहे थे। वह होटल नहीं, किसी पुराने नवाब का किला जान पड़ता था। किले के पीछे एक बाग था, घने पेड़ों से घिरा हुआ, बीच में संगमरमर की एक मूर्ति खड़ी थी और बादाम के वृक्ष… यहीं पर मुझे एक कहानी सूझी थी, एक छोटे से देश का दूतावास, जहाँ सिर्फ़ तीन या चार लोग काम करते हैं… कुछ ऎसा संयोग होता है कि उनकी सरकार यह भूल जाती है कि कहीं किसी देश में उनका यह दूतावास है। बरसों से उनकी कोई खबर नहीं लेता… वे धीरे धीरे यह भी भूल जाते हैं, कि वे किस देश के प्रतिनिधि बनकर यहाँ आये थे। बूढ़े राजदूत हर शाम अपने कर्मचारियों के साथ बैठते हैं और शराब पीते हुये याद करने की कोशिश करते हैं कि यहाँ आने से पहले वह कहाँ थे।
यह कहानी है या हमारी आत्मकथा?”
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“जब मैं कोई पत्ता झरता हुआ देखता हूँ, तो कहीं भीतर एक हल्का सा रोमांच उमगने लगता है। वह अपने झरने में कितना सुंदर दिखाई देता है, अपनी मृत्यु में कितना ग्रेसफ़ुल। आदमी ऎसे क्यों नहीं मर सकता – या ऎसे क्यों नहीं जी सकता?”
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“बूढ़ा होना – क्या यह धीरे धीरे अपने को खाली करने की प्रक्रिया नहीं है? अगर नहीं, तो होनी चाहिए – ताकि मृत्यु के बाद जो लोग तुम्हारी देह को लकड़ियों पर रखें, उन्हें कोई भार महसूस न हो और अग्नि को भी तुम पर ज्यादा समय न गँवाना पड़े, क्योंकि तुमने जीवनकाल में ही अपने भीतर वह सब कुछ जला दिया है, जो लकड़ियों पर बोझ बन सकता था…”
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“मुझे एक साथ बहुत-सी किताबें पढना अच्छा लगता है। ’अच्छा लगना’ गलत शब्द है – दरअसल यह एक प्रलोभन है, लालच, लस्ट। मैं खिंचता चला जाता हूँ। प्रेम नहीं, वासना। यही कारण है, कि जिस किताब को छोड़कर दूसरी के पास जाता हूँ, तो कुछ उसी तरह छिपकर, जैसे कोई प्रेमी अपनी एक स्थायी प्रेमिका को छोड़कर दूसरी स्त्री के पास… उसका आनन्द हमेशा एक अपराध बना गैर-वफ़ादारी के नीचे छिपा रहता है।”
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* निर्मल की डायरी ’धुंध से उठती धुन’ से
कॉपीराईट: लेखक और प्रकाशक का
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“जब मैं कोई पत्ता झरता हुआ देखता हूँ, तो कहीं भीतर एक हल्का सा रोमांच उमगने लगता है। वह अपने झरने में कितना सुंदर दिखाई देता है, अपनी मृत्यु में कितना ग्रेसफ़ुल। आदमी ऎसे क्यों नहीं मर सकता – या ऎसे क्यों नहीं जी सकता?”har cheez apne aap me sunder hoti hai..zindgee or mout bhi..achhe lge sabhi tukde...
ReplyDeleteशुक्रिया निर्मल जी की डायरी के अंश पढ़वाने के लिये।
ReplyDeletewonderful!!!
ReplyDeletebahut bahut shukriya pankaj..
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