Monday, June 17, 2013

ऑपरेशन थ्री स्टार


एक बार गधी ने पूछा कि ओ गधे इश्क करता है
मैं जानू पक्का तू मुझको घूरे मुझपे मरता है
तो गधे की तो भई खुली लाॅटरी
बोला मेरी जानम, तू एक हुक्म दे, कदमों में तेरे मर जाऊं हरदम
तो गधी ये बोली, मैं तेरा बायोडाटा लूंगी
मैं  thought करूंगी उस पर तभी लाइन क्लियर मैं दूंगी
तो गधा ये बोला बायोडाटा तो मेरा है ऐसा कि
फट जाए बड़े बड़ों की एटम बम के जैसा
मैं पाया जाता चरता हूं
हां मैदानों के अंदर
और साथ पार्लियामेंट की हर एक सीट के बैठा ऊपर
IAS भी मैं हूं आज का
IPS भी मैं हूं
और
देश चलाते उन मदारियों का
सर्कस भी मैं हूं
मिली जुली सरकार बनाता और गधों को लेकर
फिर झाड़ दुलत्ती झगड़ा करता आप में रो रोकर
तो गधी ने दी एक broad smile 
और बोली यूं बल खाकर,
कि हनीमून मनाएंगे इंडिया गेट पर जाकर
उन मरे जवानों को देंगे सेल्यूट कि जो बस कट गए,
जो आंख मूंद कर 100 करोड़ की आबादी से घट गए

मुल्क की ले ली भईया
बात अलबेली भईया
के देखो Nationality 
चीखती मर गई दैया।

बजते डफली और मंच पर तीस से चालीस कलाकारों द्वारा कोरस में गाए जाने वाले इस गीत को लिखा - पीयूष मिश्रा ने।

इंडिया हैबिटैट सेंटर में दिनांक 15 और 16 जून को डारियो फो द्वारा लिखित प्ले 'The Accidental Death of an Anarchist' का मंचन किया गया। मूल इतावली से अंग्रेजी में अडेप्टेशन के बाद इसका हिन्दी रूपांतरण अमिताभ श्रीवास्तव ने ऑपरेशन थ्री स्टार के शीर्षक से किया है।

कहानी पुलिस कस्टडी में होने वाले मौत को लेकर है कि कैसे निर्दोष लोगों को आतंकवादी बता कर पुलिस कभी इनकाउंटर तो कभी आत्महत्या बता कर मामले को रफा दफा करती है। यही वजह है कि बकौल निर्देशक अरविंद गौर - जब हमने यह नाटक गुज़रात में करने की कोशिश की तो इसे बैन कर दिया गया।




Our task as intellectuals, as persons, who mount the pulpit or the stage, and who, most importantly, address to young people, our task is not just to teach them method….. a technique or a style: we have to show them what is happening around us. They have to be able to tell their own story. A theatre, a literature, an artistic expression that does not speak for its own time has no relevance -----– Dario Fo



इसी आधार पर चलते हुए अस्मिता थियेटर गु्रप सही मायने में सीधे जनता से इटरेक्शन करती वाली गु्रप है। जिनके प्ले के मूल में जनसरोकार, करंट अफेयर्स और जन जागरूकता के मुद्दे होते हैं। नाटक के बीच में यह वैसे संवादों को इंसर्ट करती है जिससे पब्लिक की शार्ट टर्म मेमोरी की जंग छुड़ाती है। कम सुविधा और महज पचास रूपए के टिकट में यह बहुत प्रतिबद्ध नज़र आती है। और यही वजह है कि अरविंद कहते हैं - हमने ऐसे ही बीस साल चला लिए।

पीयूष अस्मिता से चार साल जुड़े रहे हैं। और इस नाटक में सनकी जोकि मुख्य पात्र है उसका किरदार वही करते थे। मूल नाटक में गीत नहीं है लेकिन हिंदीकरण में उत्तेजना और जागरूकता जगाने वाला गीत उनसे लिखवाया गया। नाटक के बीच बीच में पीयूष के गीत का प्रयोग किया गया है।

कल सुबह से हो रही बारिश में सारे कलाकारों के पैर सूजे हुए थे, बावजूद इसके उन्होंने बढि़या प्रदर्शन किया। हां लंबे लंबे, जटिल संवाद के कारण सनकी का फमबल मारना अखरा। तीनों पुलिस ने बहुत अच्छा काम किया। पत्रकार बनी शिल्पी के चेहरे पर थकावट साफ ज़ाहिर थी।

एक प्रयोग के तहत यह दिखाया गया किरदार मूल नाटक से हटकर 16 दिसंबर और भागलपुर पुलिस कस्टडी में मौत के बारे में दर्शकों को याद कराना नहीं भूलते। यह जुझारू छवि को दर्शाता। परिणाम का वर्जन - टू जिस तेज़ी से दिखाया गया वो भी प्रभावित करने वाला रहा।

अभी फाइन साॅल्यूशन, लोगबाग, रामकली और चुकाएंगे नहीं (फिर से) वगैरह बाकी हैं।

Saturday, June 15, 2013

लाल क़िले का आखिरी मुशायरा


इज्जत से काम करने जाओ तो नहीं मिलता और गलत रास्ते अख्तियार करो तो बाइज्जत मिलता है। एसआरसी में कल साढ़े सात बजे खेले जाने वाले नाटक का नाम लाल किले का आखिरी मुशायरा था। अब मेरे जैसा आदमी जो न ठीक से हिन्दी सीख सका, न उर्दू का ही विद्यार्थी बन पाया और इस तरह अधकचरा ज्ञान पाया, सो नाम सुनकर ही उत्साहित हो गया। मज़ा तो तब आया जब टॉम अल्टर का नाम देखा। थियेटर में इनका बड़ा नाम है। अदब से टिकट लेने काउंटर पर गया तो जबाव मिला - सॉरी सर। आल टिकेट्स हैव बीन आलरेडी सोल्ड आऊट सर टाईप जैसा कुछ। हरी घास पर मुंह तिकोना हो आया। फिर वही पटना वाले लाइन पर आना पड़ा। आम बोलचाल की भाषा में इस तरह के संघर्ष को राष्ट्रीय शब्दावली में जुगाड़ कहते हैं। फिर शुरू हो गई मुहिम गार्ड को पटाने की। कोशिश रंग लाई और जो लाई तो कहां हम ऊपरी माले के बाड़े में प्लास्टिक कुर्सी पर बैठने वाले कौम और कहां एकदम फ्रंट पर तीसरी लाइन में गद्देदार सीट पर उजले साफे में लिपटे रिजव्र्ड पर आसीन हुए। कुछ ही लम्हें बाद लाल मखमली पर्दा जो उठा तो मुखमंडल भी प्रकाशमान हो उठा। देखते क्या हैं कि एक शमां जली हुई है और तीन उजले पर्दे लटके हैं जो नीचे आकर सिमटे हुए हैं। तीन दरबान सावधान विश्राम की मुद्रा में खड़े हैं। ये ऐसे ही डेढ़ घंटे तक रहे। 

मंच पर बारी बारी से कई शायर आते हैं। और फिर इंट्री होती है बहादुर शाह जफर की यानि टॉम अल्टर की। सत्तर साल के बूढ़े जफर को देखते ही अपनी कक्षा नौ की धुंधली सी याद आई जब मास्टर ने सुनाया था -

न था शहर देहली, यह था चमन, कहो किस तरह का था यां अमन
जो ख़िताब था वह मिटा दिया, फ़क़त अब तो उजड़ा दयार है
                               और
न किसी के आंख का नूर हूं न किसी के दिल का करार हूं
जो किसी के काम न आ सके मैं वह एक मुश्‍तेग़ुबार हूँ

न जफ़र  किसी का रक़ीब हूँ न जफ़र  किसी का हबीब हूँ
जो बिगड़ गया वह नसीब हूँ जो उजड़ गया वह दयार हूँ

मेरा रंग-रुप बिगड़ गया मेरा हुस्‍न मुझसे बिछ़ड़ गया
चमन खिजाँ से उजड़ गया मैं उसी की फ़सले-बहार हूँ

तब जफर क्या थे। हिन्दुस्तान का एक बेबस राजा। शायर थे सो शायरी के शौकीन होने के बायस मुशायरा रखते थे। नाटक में दिखाया गया कि आज के मुशायरे का मंच संचालन मिर्जा नौशा यानि ग़ालिब करेंगे और दाग, बालमुकंद, मुंशी, मोमिन और इब्राहिम जौक आदि भी अपनी गज़ल सुनाएंगे। गालिब पर नाटक में समझ में न आने के काबिल शेर कहने का तंज कसा गया। दाग ने गालिब पर ये शेर दागा - 

अपना कहा जो आप ही समझे तो क्या समझे
मज़ा तो तब है जब आप कहें और सब समझे।

चूंकि बादशाह जफर मंच संचालन नहीं कर रहे थे सो शमां अपनी जगह ही रोशन रही और बारी बारी से शायरों के पास नहीं लाई गई। 

जैसा कि उम्मीद थी कि गालिब छा जाएंगे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने हाजिरजवाबी मंच संचालक की भूमिका निभाई। मसलन जब एक शायर की बारी आती है तो गालिब उसके बारे में कहते हैं - साहब ब्रितानिया सरकार में अफसर हैं। ग्यारह सौ रूपए सालाना की तनख्वाह पाते हैं इतने की ही बाज़ार में मेरे नाम कर्ज हैं। वहां नौकरी और यहां शाइरी। सो साहब जादूबयानी करते हैं। मंच लूटी मोमिन ने।

तुम मेरे पास होते हो गोया
जब कोई दूसरा नहीं होता।
हाले दिन उनको लिखूं क्योंकर
हाथ दिल से जुदा नहीं होता।

टूटे हाथ से जब मोमिन ये शेर पढ़ते हैं तो और भी शेर और भी मौजू हो उठता है। मोमिन की आवाज़ मधुर और धीमी रखी गई है। वहीं दाग सबसे बुलंद आवाज़ वाले थे। जौक अपने रूतबे के बायस बुलंद रहते थे।

जफर ने जो सुनाया वो तत्कालीन हिन्दुस्तान का हालाते हाज़रा था। उनके बुढ़ापे ने उनकी बादशाहत की बेबसी को और उभारा। 

ऐसा नहीं था कि यह नाटक बहुत रोचक था। बल्कि नाटक अपने कहानी और शिल्प के लिहाज़ से कमज़ोर था। अव्वल जिन्हें उर्दू की थोड़ी भी जानकारी नहीं उनके लिए तो पूर्णतः नीरस था। कई लोग सिर्फ इसलिए बैठे रहे कि शायद सीन बदले और कोई चेंज आए। नाटक में मुशायरे के अलावा और कुछ नहीं था। जबकि होना ये चाहिए था मुशायरे में तब के हालात पर ज्यादा शेर होने चाहिए थे, मुशायरे से कुछ अलग भी होना चाहिए था। नाटक में वैसा कोई तनाव या उत्तेजना भी नहीं थी। बेहद बंधे दायरे में ये नाटक खेला गया। कहने को कहा जा सकता है कि एक रवायत थी जिसे निभाया जा रहा था। लेखक थोड़ी छूट लेते हुए इसे दिलचस्प बना सकता था जिससे नाटक यादगार हो सकती थी। यहां लेखक ये जवाब दे सकता है कि ऐतिहासिक घटनाओं और किरदारों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकते।

पूरे नाटक के दौरान एक बार भी पर्दा नहीं गिरा। एक ही सीन सिक्वेंस डेढ़ घंटे चलना। वहीं चेहरे मंच पर लगातार रहना, थकाता है।

एम सईद आलम बहुत प्रतिभाशाली हैं जिन्होंने ये नाटक निर्देशित किया। मंच सज्जा अच्छी थी लेकिन लाईटिंग और भी अच्छी लेकिन मेकअप कमाल था। ऐसी कि जिन किरदारों को अन्य नाटक में देखा था उसे अंत तक नहीं पहचान पाया। मसलन ग़ालिब - ये हरीश छाबड़ा थे। 

हां सारे किरदारों के उर्दू उच्चारण दुरूस्त थे। मंच पर जब जफर की इंट्री हुई तो दर्शकों ने नाटक से अलग उनके सम्मान में ताली बजाकर उनका स्वागत किया।

अंत में जफर साहब की बात - शेर वो नहीं जिसे सुनकर वाह निकल जाए, शेर वो जिसे सुनकर आह निकल आए।

नोट :-ऊपर लिखे सारे शेर स्मृति आधारित हैं, सो उनमें गलतियां संभव है।

Tuesday, June 11, 2013

What tнē #$*! D̄ө ωΣ (k)πow!?


डाकिये के ओर से :  हम सोचते है कि हम बहुत बड़े देश भक्त हैं, बहुत बड़े प्रेमी हैं, बहुत बड़े पापी हैं, हमने ये किया है, हमने वो किया है। हम ये नहीं कर पाए, हम ऐसे नहीं जी पाये। हमने ऐसे जिया, हमने ये खाया, हमने ये पहना। हम ये भी सोचते हैं, हमें एक दिन मर जाना है।  और ये सब सोच चुकने के बाद एक दिन हम कहते हैं, "मेरी आँखें खुल गयी मैंने तो कुछ भी नहीं किया।" पर ये सोचना भी इगो का शुष्मतम रूप ही ठहरा। अंत में पता लगता है, कि किया तो सब कुछ गया है, पर जिसने किया वो मैं नहीं था। मृत्यु तो होगी पर मेरी नहीं। पता लगता है कि जिसे, जिन चीजों को, इस कथित समाज ने इतना ऊँचा  दर्जा दिया है, वो भी इगो का ही एक रूप है। वीरता, आज़ादी, देशभक्ति,परोपकार। पता लगता है कि समाज खुद एक इगो है। शुद्ध इगो। प्रक्षेपण। हमारे विचारों का। केवल सोच आपकी दुनिया को बनाती है। और सोच के पार? कुछ नहीं? 
ना... ना...
...'कुछ नहीं' भी नहीं।

पिछले कुछ दिनों में कई मिस्टिक कवियों से दो चार हुआ हूँ, पेसोवाएड्रिएन सिसिल रिच, रोबेर्टो जुराज़ो, कबीर, फरीद, रूमी। 
पर जिसने पढ़ा इनको वो मैं न था। 






We create our own reality




प्रॉसपेक्टिव इमिग्रेंट प्लीज़ नोट (प्रस्तावित अप्रवासी कृपया ध्यान दें)

दो ही सम्भावनाएँ हैं
या तो आप इस द्वार से जाओगे, या नहीं जाओगे

इस द्वार से गुजर चुकने के बाद हमेशा ही एक जोखिम बना रहेगा तुम्हारे साथ
अपना नाम याद रखने का जोखिम
हर वस्तु तुम्हें घूरने लगेंगी
और फिर प्रत्युतर में तुम्हें भी उन्हें देखना होगा
उन्हें, उन चीज़ों को, हो जाने देना होगा

और यदि तुम इस द्वार से नही गुज़रते
तुम्हारे लिए एक सम्पूर्ण जीवन जीना सम्भव है
सम्भव है अपनी प्रवृति को बनाये रखना
अपनी प्रतिष्ठा को सम्भाले रखना 
वीरता पूर्वक मृत्यु को स्वीकार करना
आदि, आदि 

लेकिन बहुत कुछ तुमको अँधा बनाएगा
बहुत कुछ तुमसे बच निकलेगा
किस कीमत पर, कौन जाने ?

ये द्वार अपने आप में कोई वचन नहीं देता,
वस्तुतः , ये मात्र एक द्वार है। 


                                           -एड्रिएन सिसिल रिच

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PS: राँझना का म्युज़िक रिव्यू अगली पोस्ट से ज़ारी 

Monday, June 10, 2013

नज़र लाये ना (राँझना म्युज़िक रिव्यू - 6)

मैंने हारा मैं, तेरा सारा मैं,
मीठा मीठा तू, ख़ारा ख़ारा मैं
तेरा सारा मैं, सारा मैं।


नज़र लाये एल्बम का सबसे मेलोडियस गाना है। ऐसा लगता है कि महेश भट्ट या करण जौहर की किसी मूवी से सीधे उठा लिया गया हो। नज़र लाये न मतलब कोई नज़र न लगाये। यदा इसी गीत की एक लाइन :

नज़र लाये जो तुमको जल जाए वो।

आजकल सूफ़ी गाने कहकर जैसे गाने प्रमोट किये जाते हैं और हिट भी होते हैं ये उसी विधा का गाना है।
या फिर उस विधा का जो पाकिस्तानी गायकों से कथित तौर पर विशेष तौर पर गवाये जाते हैं।
इसे सामयिक समय का टिपिकल रोमांटिक बॉलीवुड सॉंग भी कहा जा सकता है। जिसे हिरोइन टेडी बियर के साथ डांस करते हुए और हीरो कोई काम करते करते भूलते हुए गाता है। या फिर दोनों किसी आउटर लोकेशन में स्लो मोशन में डांस करते हुए।
मूवी रिलीज़ होने के एक डेढ़ हफ्ते बाद इसे प्रमोट किया जाना चाहिए। रनिंग सक्सेसफूली स्लोगन के साथ। अच्छा लगेगा।
एफ. एम. और म्युज़िक चैनल का लम्बे समय तक प्रिय रहने वाला है ये गाना।
इस तरह के गानों को ताज़गी भरा गाना इसलिए नहीं कहते क्यूंकि ये क्रिएटिवली फर्स्ट अटेम्प होते हैं, बल्कि इसलिए क्यूंकि इन गानों को सुनकर एक विशेष उम्र के लोगों को एक विशेष तरह की ताज़गी का आभास होता है।
उम्र के लिहाज़ से अच्छे/हिट गाने तीन तरह के होते हैं। पहले इंस्टेंट हिट लेकिन...
...कमिंग सून गोइंग सूनर। (राँझना के नायक धनुष से बेहतर इस बात को कौन जानता होगा। जिनका कोलावरी डी इसी ज्योंरे का गीत था।)
दूसरे बड़े ज़िद्दी । बड़ी मुश्किल से हिट होते हैं पर जब होते हैं तो ऑल टाइम फ़ेवरेट बन जाते हैं। इन्हें ही मैं धीमा अमृत कहता हूँ। जैसे दिल से के गीत। तीसरे इन दोनों के बीच के कुछ। धीरे धीरे चढ़ते हैं। और धीरे धीरे धीरे उतरते हैं। इनके प्रसिद्धि के ग्राफ में कहीं शार्प एज़ नहीं होते कर्व होते हैं। नज़र लाये न तीसरी तरह का गाना है। जैसे अभी रिसेंटली 'सुन रहा है न तू' या 'इश्क वाला लव'।
इरशाद ने इस तरह के कई गाने लिखे हैं लव आजकल, मेरे ब्रदर की दुल्हन और कॉकटेल सरीखी एल्बम में।
इस दोगाने को राशिद और नीति दोनों ने ठीक उसी तरह गाया है जैसे गाया जाना चाहिए। लड़की को ज़्यादा अच्छे बोल मिले हैं पर सुनने में लड़के के बोल ज़्यादा स्नुथिंग लगते हैं।
गाने को साढ़े चार अंक। गाना भी जो प्रोमिस करता है वो डिलीवर करता है। न कम न ज़्यादा।

"काजल-टीका पीछे कानों के, नजरों को रोके रे।
दुनियां देती लाखों ही धोखे मीठी सी होके रे।"


PS: ध्यान से सुनने पर गाने के शुरुआत में बैकग्राउंड की एक टोन/आवाज़ काफ़ी इरिटेट करती है। लगता है कि आपके प्लेयर या रिकोर्डिंग में कोई ग्लीच है। ये आवाज़ ऐसी है जैसे झूले से उतरने के बाद उसकी चीं चीं करती आवाज़ या चड़ाई में साइकिल चलाते वक्त पेडल की आवाज़। मुझे इस आवाज़ की प्रासंगिकता समझ नहीं आई।

PPS: नज़र और बद्दुआ दोनों अस्तित्वहीन होती हैं। अच्छे लोग लगाते/देते नहीं, बुरों की लगती नहीं।
TBC....

ऐ सखी (राँझना म्युज़िक रिव्यू - 5)

ऐ सखी एल्बम का एक मात्र फेमिनाइन गाना है। पर अपने वक्त से थोड़ी पीछे। यही गाना कुछ दस एक साल पहले आया होता तो ज़्यादा प्रसिद्ध होता, बनिस्पत कि जितना आज होगा। क्यूंकि दिल्ली या किसी और मेट्रो सिटी की लडकियां इस गाने से रिलेट नहीं कर पाएंगी। वो इन गानों से आगे बढ़ गयी हैं।
या तो समहाउ इंटीरियर या समहाउ कन्जर्वेटिव फैमली की लडकियाँ इससे ज़यादा रिलेट कर पाएंगी।
या वो लडकियां जिनकी ज़िन्दगी का हर पन्ना रोमांटिक है। इन्फेक्ट, गाना सुनकर आप भी इन लडकियों से गाने को ज्यादा रिलेट कर पाएंगे। सहेलियों की चुहल बाजियां, एक दूसरे को चुंटी काटना वगैरह की इमेज बनेंगी। जैसे 'सुन सुन सुन दीदी तेरे लिए','मार उडारी' और रहमान के ही कुछ गाने 'एली रे एली'  या 'ताल से ताल मिला'.
बोल का कॉन्सेप्ट पहेलियों वाला है। जैसे इच्चक दाना बिच्च्क दाना।


 


ये गाना कतिया करूं गाने से इस तरह अलहदा है कि उसमें एक अकेली लड़की थी इसमें बंच ऑव देम। लास्ट स्टेंज़ा लिरिटिकल मास्टर पीस है।

पास न हो बड़ा सताए 
पास जो हो बड़ा सताए 
पास बुलाये बिना बतलाये 
पास वो आये बिना बतलाये 
पास रहे नज़र न आये 
पास रहे नज़र लगाये 
पास उसके रहे ख्वाहिशें 
पास उसी की कहें ख्वाहिशें 


गाना क्लासिकल बेस है। किसी विशेष राग पर आधरित।
केवल भारत में ही आप शाश्त्रीय संगीत की दो विधाएं पाएंगे क्रमशः कारनेटिक(दक्षिण भारतीय) और इंडियन(उत्तर भारतीय) दोनों ही अपने आप में सम्पूर्ण और अलहदा।
रहमान दोनों के बीच ही टॉगल ही नहीं करते बल्कि जैज़, रॉक, कंट्री जैसे वेस्टर्न में भी प्रयोग करते हैं (इस गाने में नहीं अन्यथा)। गाने के बीच में (इंटरटोन में) लडकियों का 'टयऊँ-टयऊँ-टयऊँ' और 'पें पें पें' करना गाने को कुछ चीप बना देता है। पर हाँ गाने को एक फेमिनाइन ऑरा भी देता है। गाने बार बार सुनने के बाद अच्छा लगने लगता है। मुझे गायकी में मधुश्री, चिन्मय, वैशाली, आँचल सेठी के करतब और इनोसेंस भा गयी।
चार अंक।

PS: कुछ पुराने लोग गाना सुनकर गाने में लता मंगेशकर को मिस कर  सकते हैं। या महसूस कर सकते हैं।

TBC...

Sunday, June 9, 2013

तुम तक (राँझना म्युज़िक रिव्यू - 4)

धीमे ज़हर के बारे में तो हम सब जानते हैं और बात करते हैं। पर शायद धीमा अमृत समझना मुश्किल हो।
सामान्य गाने अगर अच्छे लगते हैं तो सौ बार सुने जाते हैं। लेकिन ऐ आर रहमान के गाने अगर सौ बार सुने जाएं तो अच्छे लगने शुरू होते हैं। और फिर कई सौ बार और सुने जाते हैं। इसलिए इनकी ज़िन्दगी ज्यादा लम्बी होती है। 
लेकिन सवाल ये है कि ये सौ बार सुने ही क्यूँ जाते हैं? क्यूँ नहीं ये बाकी बकवास गानों की  तरह एक या दो बार में ही नकार दिए जाते हैं?
इसका लोजिकल रीज़न ये दिया जा सकता है क्यूँकि उनके साथ रहमान का नाम जुड़ा है। पर ये उत्तर संतुष्ट नहीं करता क्यूंकि जब नाम नहीं था तब भी ऐसा ही था। रोज़ा और रंगीला के दिनों से।
बात लोज़िंक्स से समझी ही नहीं जा सकती। बात कुछ और है।
रहमान को पहली बार सुनकर भी लगता है कि इसमें ऐसा कुछ तो है जो छुपा हुआ है। और वो क्या है इसकी खोज करते करते हमें वो प्यारे लगने लग जाते हैं। जैसा कि स्त्रियों को जानने का प्रयास करने वाला हर पुरुष अंत में इसी निष्कर्ष पे पहुंचता है कि स्त्रियों को समझा नहीं जाना चाहिए उनसे प्रेम किया जाना चाहिए।
सेम गोज विद रहमान'स कम्पोज़ीशन।
मैंने रहमान और उसके म्युज़िक को जानने का प्रयास किया है। पर मेरा रास्ता दूसरा रहा है। कारण दो हैं, अव्वल तो मेरे पास औज़ार नहीं हैं कि मैं उनके गानों की चीर फाड़ कर सकूँ। औज़ार इन द सेंस, राग, सुर, ताल आदि की परख।
और दूसरा कारण कि मैंने उन्हें दिमाग से समझने की कोशिश भी नहीं की। (ये शायद पहले कारण का ही एक्सटेंशन है।) उन्हें और उनके गानों को समझने के लिए समझ का इस्तेमाल नहीं किया।
खैर ये दूसरा मुद्दा है...
तुम तक को कोई अंक नहीं दे पाऊंगा और न इसका अनबायस्ड विश्लेषण कर पाऊंगा। क्यूंकि ये गाना पूरी एल्बम में मेरा प्रिय गाना है। वो भी किसी टेक्निकल वजह से नहीं, कुछ निजी जुड़ाव सा लगता है। और मेरी कोंशियस अलाऊ नहीं करती की मैं बायस्ड होकर इसका रिव्यू लिखूं।
एक डेढ़ महीने पहले जब आशिकी-२ के गाने काफी बार सुन चुका तो नए गानों वाले खाने में एक गैप सा बन गया था बस उस गैप को भरने के लिए इस गाने को सुना था। तब से लगातार सुन रहा हूँ, सोचा था कि रिव्यू लिखूंगा। पर प्रेम ही कर बैठा।



"नैनों के घाट ले जा नैनो की नैया, 
पतवार तू है मेरी तू ही खेवियाँ।  
जाना है पार तेरे तू ही भंवर है, 
पहुंचेगी पार कैसे नाज़ुक सी नैया?"

इससे पहले 'नादान परिंदे' का हैंगोवर था, अब 'तुम तक' का है।
रहमान के बारे में भी वही बात कही जा सकती है जो शराबी, शराब के बारे में कहते हैं। अगर एल्कोहोल के हेंगोवर से बचना है तो टल्ली रहो। अगर रहमान के हेंगोवर से बचना है तो उसका कोई नए गाने के रिलीज़ होने का इंतज़ार करो। बाकी सब तो फिल इन दी ब्लैंक्स हैं।
'तुम-तक' को बीट्स/म्युज़िक  की तरह भी इस्तेमाल किया गया है (जैसे तुम तक तुम तुम तक तुम तुम तक तुम) और लिरिक्स की तरह भी।
वो गुलज़ार का एक गाना था,"सारे के सारे गामा को लेकर".
गाया ज़ावेद अली, कीर्ति सगाथिया और पूजा ने है।


PS: ऐसा नहीं है कि प्रेम जीवन में एक ही बार होता है, पर ये जरुर है कि ज़्यादा बार प्रेम करने से प्रेम के मायने डायल्यूट हो जाते। यकीनन वो आखिरी होली थी...
...तुम तक !  


   
TBC...
   

Saturday, June 8, 2013

बनारसिया (राँझना म्युज़िक रिव्यू - 3)

फर्स्ट थिंग फर्स्ट। गाने को पांच अंक। गाना बनारस का एंथम होने का माद्दा रखता है। और बनारस या यूपी के एड में इस तरह यूज़ किया जा सकता है कि एम. पी. के टूरिज्म एड को टक्कर दे सके।
श्रेया घोषाल: कमाल, रहमान: कमाल, इरशाद कामिल: कमाल, शहनाई: कमाल, म्युज़िक अरेंजमेंट: कमाल। और सबसे कमाल बनारसिया और उसका बनारस।
गाना शुरू होते ही आपको अपनी गिरफ्त में ले लेता है। ख़ास तौर पर जब आपने बनारस को नज़दीक से देखा हो, वहां रहे हों मगर वहां के मूल निवासी न हों। बनारस दुनिया के सबसे पुराने शहरों में से एक है। और ये खुद शहर आपको चिल्ला चिल्ला के कहता है। गदोलिया से केंट तक और दश्स्व्मेघ से मनेसर तक। काशी विस्वनाथ से टकसाल तक। और बंटी बबली से राँझना तक।
"रंग में भंग या भंग में रंग बनारसिया,
संग में जंग या जंग में संग बनारसिय।"
इरशाद की तारीफ़ इसलिए कि वो पूरे बनारसिया होकर इस गाने को लिखते हैं। कहीं भी उर्दू या पंजाबी के ग्लिम्पस नहीं। है तो थोड़ा बहुत बनारस का ही आंचलिक टच।
रहमान की तारीफ़ इसलिए कि वो पूरे बनारसिया होकर इस गाने को कम्पोज़ करते हैं। अपनी टेक्निकलटी नहीं आने देते। लाते हैं तो शहनाई।
श्रेया की तारीफ़ इसलिए कि वो पूरी बनारसिय होकर गाना गाती हैं। अपने पीठ पे अपेक्षाओं का भार नहीं आने देतीं। बेफिक्री में गाती हुई लगती हैं। जबकि गाना गायकी के लिहाज़ से पिछले कुछ समय में आये मुश्किल गानों में से एक है। ख़ास तौर पर बंदिशें, सरगम वगैरह। गाना सेमाई क्लासिकल और क्लासिकल के बीच के स्पेक्ट्रम का है। पर सुनने में आसान और खूबसूरत लगता है। गोया चार्ली चैपलीन या रोवन ऐटीनकसन की कॉमिक टाइमिंग, जिसके पीछे की मेहनत दर्शकों को नज़र नहीं आती।
इर्शाद इस गाने में शब्दों के साथ खेलते हैं। बानारसिया को तोड़कर बना रसिया की तरह भी इस्तेमाल कर लेते हैं। और कमाल कर देते हैं।
"घाट किनारे उमर गुज़ारी,घाट बना 'रसिया'।"
केवल इस गाने भर के लिए पूरे म्युज़िक क्रू को नेश्नल अवार्ड दिया जा सकता है। रहमान का ये गाना मेलोडियस भी कहा जा सकता है। और क्रेडिट श्रेया की गायकी को दिया जा सकता है।
हाय कहना उनका और ओये ओये ओये से गीत का आगाज़ करना।
PS: धानुष की तारीफ़ इसलिए कि वो प्रोमो में पूरे बनारसिया लगते हैं। अपना दक्षिण भारतीय ऑरा भूल गये हों। "फट गयी है, सियोगे"। या फिर थप्पड़ खाने के बाद हाथों को हिलाना। गोया पूरी बॉडी लेंग्वेज कह रही हो। देखा कहा था न थप्पड़ पड़ेगा। बिग डील।
सुना है नेशनल अवार्ड विनर हैं वो।

TBC...

तू मन शुदी (राँझना म्युज़िक रिव्यू - 2)

राँझना का ऑडियो बिस्मिल्लाह खान को समर्पित किया गया है इसलिए इसके हर गाने में शहनाई की धुन जरुर सुनाई देती है। 'तू मन शुदी' रहमान के ही एल्बम 'रंग दे बसंती' की याद दिलाता है। ख़ास तौर पर 'रूबरू' या फिर दिल्ली सिक्स का थीम सॉंग। कारण इसका रिपिटेटिव होना नहीं बस एक आइडेंटिकल इसेंसं है। गीत की शुरुआत अशर के एक गाने 'येह!' की भी याद दिलाती है।
'तू मन शुदी' दरअसल फ़ारसी या का शाब्दिक अर्थ "तू मैं हो गया हूँ" है। लिखा अमीर ख़ुसरो ने है।

मन तू शुदम, तू मन शुदी, मन तन शुदम, तू जां शुदी,
टाक्स नागोयद बाद अज़ीन मन दीगाराम तू दीगारी।
(मैं तुम बन गया हूँ और तुम मैं, मैं जिस्म और तुम जान,
अब कोई ये नहीं कह सकता,"मैं कोई और हूँ और तुम कोई और।")



रहमान से मैं वैसे भी मेलोडी हर गाने में एक्स्पेक्ट नहीं करता। वो टेक्निकल ज्योंरे के कम्पोजर हैं। जो, जैसा की पहले भी कहा था यदा कदा बेहतरीन मेलोडी दे देते हैं, जैसे 'छोटी सी आशा' या 'तेरे बिन बेस्वादी'। इस एल्बम में भी एक दो मेलोडियस गाने हैं लेकिन 'तू मन शुदी' उनमें से नहीं है। ये गाना बाकी गानों से अलग है इस मायने में कि आपको धनुष के बदले अभय द्योल और वाराणसी के बदले दिल्ली इसी गाने में दीखता है। रहमान ने जब तक है जान के बाद रब्बी को फिर रिपीट किया है। लेकिन 'तू मन शुदी' गाना 'छल्ला' का एक्सटेंडेड वर्जन नहीं, बिलकुल ही अलग गाना है। बेस का इस्तेमाल गाने के शुरू में ही शुरू हो जाता है और अंत तक बना रहता है।
पंजाबी में आधे अक्षरों का अभाव और अक्षरों का हार्ड डिक्शन है इसलिए ये इंडियन हार्ड रॉक के लिए मुफीद भाषा बनी हुई है। जैसे,
"रंग दे हवावां वि घोढ़ी ते चढ़ी",
"रज्ज के हमसे वफाएं लेना, ताज़ा हवाएँ लेना।"
पंजाबी भाषा ही नहीं डिक्शन भी जैसे,
"पर न तू झूठा प्यार करी" में 'झूठा' को 'झुठ्ठा' और करी को 'करीं' बोलने से रॉक एफेक्ट आना ही आना है।
गाने को चार अंक। आधा अंक 'दिल्ली' 'संसद' जैसे शब्दों के वजह से कट जाता है। हाँ जरुर ये सिचुएशनल सॉंग रहा होगा लेकिन फिर भी इन शब्दों के वजह से एक अटकाव आता है। गीत के लिरिक्स का सबसे स्ट्रोंग पार्ट 'तू मन शुदी' ही है। और कुछ बोल, जैसे…
"जिसमें होगा सब जिंदा, शहर भी दिल के मानिन्दा, खुल (कुल्ल) कर सांस लेगा बाशिंदा।"
PS: ये रॉक गीत ठीक वहां से शुरू होता लगता है जहाँ साड्डा हक़ खत्म हुआ था।
TBC...


Friday, June 7, 2013

तोहे पिया मिलेंगे (राँझना म्युज़िक रिव्यू -1)


इरशाद कामिल की एक विशेषता है कि वो पुराने लिरिक्स राईटर को भी पूरा मौका देते आये हैं। मोस्ट ऑव द टाईम विदाउट एनी क्रेडिट्स। न न वो म्युज़िक डाईरेक्टर नहीं लिरिक्स राईटर हैं। म्युज़िक डाइरेक्टर तो ऐ. आर. रहमान हैं। वो तो किसी को कोई मौका ही नहीं देते। छाए रहते हैं ज्यादातर पूरे गाने में। 'तोहे पिया मिलेंगे' में भी छाए हैं। गाना सूफ़ी की तरह प्रमोट किया जाएगा पर है कव्वाली सा। तोहे पिया मिलेंगे एक गीता दत्त ने भी गाया है। पर यदि पूरा गाना इतना बढ़िया लिख पाए कोई तो उसे पहली लाइन कॉपी करने की इजाज़त दी जा सकती है। लगता है बचपन में काफ़ी तरही मुशायरों में भाग लिया था इरशाद ने। अज्ज दिन चढिया, अलिफ़ अल्लाह चम्बे दी बूटी और तुम्हीं हो बंधु आर टू नेम फ्यू ऑव देम।
थीम वाइज़ कुछ कुछ फाया कुन का नोस्टेल्जिया देता है। ऐ. आर. रहमान इतने सेल्फ ऑबसेस्ड हैं कि कोपी करने के लिए भी ख़ुद को सेलेक्ट करते हैं। जैसे गुलज़ार सा'ब। इन लोगों को प्रीतम या अन्नू मलिक की तरह फ़िलेनथ्रोपि की नॉलेज नहीं है।
जब सरगम छेड़ो तो गाना दौड़ता है। और फिर बोल गाओ तो बेतकल्लुफी के साथ आराम करता है। तोहे पिया मिलेंगे का लूप होने के कारण जुबां में आसानी से चढ़ सकता है। मेलोडी बिटज़ एंड पार्ट में है पर टेक्निकली बहुत स्ट्रोंग है। इरशाद प्रेम विरह या फिलोसफी से ज्यादा मिस्टिक में अपने ट्रू कलर में दीखते हैं। गोया कबीर या बुल्लेशाह का एक्सटेनशन। इस गाने का भी यही स्ट्रोंग पॉइंट है...
"पाके खोना, खोके पाना होता आया रे।"
"तेरे अंदर एक समन्दर, क्यूँ ढूंढे तुपके तुपके।"
"जो है देखा वही है देखा तो क्या देखा है।"
बाकी गाने भी अज्ञात को छूने का प्रयास करते हैं पर हम उनकी अलग अलग बात करेंगे। पिया मिलेंगे निनी सा सा से शुरू होकर अलाप में खत्म होता है। सुखविंदर के साथ ऐ. आर. का लम्बा रिश्ता है। छइयां छइयां सरिखे गाने बार बार नहीं बनते पर बॉन्डिंग बन जाती है।
गाने को मेरी तरफ से पांच में से साढ़े चार मार्क्स।
इरशाद पंजाब से आते हैं और उर्दू से पी. एच. डी. की है। इसलिए उनके लेखन में हिंदी उर्दू पंजाबी और अंग्रेजी ऐवें ही आती जाती रहती हैं। साथ में फरीद, बुल्ले, बटालवी और रूमी से उनका जुड़ाव तो चमेली और लव आज कल से ही पता लगता आया है। पर कोई एक दूसरे को इंटरसैक्ट नहीं करती हैं न भाषाएँ न पुराने सूफ़ी। इसे कहते हैं ब्लेंडिंग जो खिचड़ी का परिपक्व रूप भी कहलाया जा सकता है। जैसे "क्यूँ ढूंढे तुपके तुपके","रंग दे हवावाँ वि घोड़ी पे चढ़े","तू मन शुदी"।
एल्बम ऐ. आर. रहमान का सॉरी है 'जब तक है जान' के लिए। ऐसा नहीं है कि लेजेंड गलतियाँ नहीं करते पर वो कम बैक करना जानते हैं।
एल्बम दिल से या रॉकस्टार की ऊँचाई छू सकता है। रहमान इरशाद के लिए वो होते दीखते हैं जो बर्मन गुलज़ार के लिए थे।
यू ट्यूब में इरोज़ इंटरनेशनल के ऑफिशियल प्रोमोज हैं। पर अभी शायद इस गाने का प्रोमो नहीं आया है।
"अक्ल के पर्दे पीछे कर दे घूंघट के पट खोल रे। तोहे पिया मिलेंगे।"
PS: हो सके तो ओरिजनल एल्बम खरीदिएगा। अगर आप इंटरनेट एफोर्ड करके रिव्यू पढ़ सकते हैं तो एल्बम भी एफोर्ड कर ही सकते हैं। जिसने पैसे लगाए हों ऐसे मास्टरपीस के निर्माण में उनका पैसा वापिस आना जरूरी है। और वैसे भी सी.डी. में गाने सुनने का अनुभव कुछ और ही है। आपका कलेक्शन भी बनता है और सी. डी. के गाने में डाटा कॉमपैक्ट नहीं होता तो हर आवाज़ क्रिस्टल क्लियर होती है।
मज़े भी करो तो डूबकर करो न यार। सतही मज़ा भी कोई मज़ा है।
TBC...

Monday, June 3, 2013

चुकाएंगे नहीं?


नाटक में सबसे इफेक्टिव रंग उसका लोकधर्मी होना लगता है। वैसे तो सारे फ्लेवर ठीक हैं लेकिन अगर नाटक की कहानी और पात्र रोजमर्रा से जुड़े पब्लिक कंसर्न रखती है तो दर्शक उससे सहज की कनेक्ट हो जाती है। लोकधर्मी नाटक पब्लिक को सही मायने में मंच पर घट  रही तात्कालिकता में बहा ले जाने की क्षमता रखता है। दर्शक उस वक्त न सिर्फ उससे गहरा जुड़ाव महसूस करता है बल्कि वह आंदोलित भी हो सकता है।

एक ऐसा ही नाटक कल यानि रविवार को आई एच सी (इंडिया हैबिटैट सेंटर) में अस्मिता थियेटर ग्रुप की ओर से खेला गया। शीर्षक था - चुकाएंगे नहीं? अस्मिता थियेटर इन दिनों अपना ग्रीष्म कालीन समारोह मना रहा है जिसके अंतर्गत मंटो आधारित पार्टिशन, कोर्ट मार्शल, लोग बाग, रास्ते चुकाएंगे नहीं? खेली जा चुकी है। और आपरेशन थ्री स्टार, फाइनल साॅल्यूशन, मोटेराम का सत्याग्रह, एक मामूली आदमी, अंबेदकर और गांधी और रामकली आदि खेले जाने हैं।

चुकाएंगे नहीं मूलतः एक इटैलियन नाटक है जो कि एक राजनीतिक व्यंग्य है जिसे डारियो फो ने लिखा है। डारियो फो को 1997 का साहित्य नोबोल पुरस्कार मिला है। उन्होंने और उनकी अभिनेत्री पत्नी फ्रांका रामे ने मिलकर आम आदमी को केंद्र में रखकर कुछ बेहद चुटीले प्ले लिखे हैं जोकि राजनीतिक व्यंग्य हैं। रामे अभी पांच-छह रोज़ पहले ही हमसे जुदा हुईं सो अरविंद गौड़ निर्देशित यह नाटक उन्हीं की याद में किया गया। अंग्रेजी से इसे हिंदी में अडेप्ट किया था अमिताभ श्रीवास्तव ने।

पहले के दो दृश्यों में मेरा मन नहीं रमा। लगा किसी भी क्षण सीट छोड़ दूंगा। लेकिन जब इसने रंग पकड़ा तो गहरा होता गया। मुख्य नायिका शिल्पी मारवाहा ने गला बैठे होने के बावजूद भी शानदार अभिनय किया। नाटक के अंत में पीली रोशनी में काले लिबास में पूरा थियेटर गु्रप मंच पर डफली बजाते और नारे लगाते उतर आई और अरविंद गौड़ खुद मुखातिब हुए। कुछ बातें भी हुई मसलन उन्होनें कहा कि एक नाटक के टिकट का दाम पांच सौ रूपए होने को कोई मतलब नहीं बनता। इस तरह तो आप इस विधा को दर्शकों से दूर ले जा रहे हैं। उन्होंने बताया कि हमारा ये अस्मिता थियेटर गु्रप आपको आगामी 21 जून को आने वाली फिल्म रांझना में भी इसी पब्लिक कंसर्न के मुद्दे को उठाती फिल्म के पृष्ठभूमि में यहां वहां दिखेगी।

बाज़ारीकरण और मुनाफाखोरी के आलम में एक आम आदमी और उसका परिवार किस तरह जूझता है इसका चित्रण नाटक में किया गया है। एक सुपर बाज़ार को लूट कर एक मुहल्ले की गृहणी राशन पानी को गोदामों में छुपाती हैं और छुपाए जाने के इस उपक्रम को गर्भवती होने के नाटक कर अंजाम देती हैं। आदर्शवाद और नैतिकतावादी होने का बोझ लिए एक आम आदमी कितनी तहों में पिसता है! कैस नेताओं और बड़े पुलिस अधिकारियों के पास जाते ही समाजिक समीकरण बदलने लगते हैं। इस असंतुष्ट व्यवस्था में भी कई खाए अघाए लोग ऐसे हैं जो चाहते हैं कि यह चलता रहे क्यों आटा अगर 110 रूपए मिल रही है तो उन्हें कहीं से चालीस पचास हज़ार रूपए आ भी तो रहे हैं।

रूपए का अवमूल्यन हुआ है और इससे कारखाने में काम करने वाले मजदूरों की जिंदगी क्या हो रही है इसका यथार्थ चित्रण किया गया है। रात के सन्नाटे में दो दोस्त मिलकर जबकि मंच पर मद्धिम रोशनी है जब चीनी की बोरी उठाते हैं, उस क्रम में हांफते, पुलिस की डर से गिरते-पड़ते और चीखते हैं तो रोशनी में उड़ रही गर्द को देखकर यकायक दर्शकों में चुप्पी छा जाती है।

जब एक किरदार अपने साथी को हो रहे अन्याय, बढ़ रही महंगाई और अर्थव्यवस्था की पोल खोल रहा होता है तो दरअसल वह हम दर्शकों को आज का इकोनाॅमिक्स बता रहा होता है।

नाटक की कहानी धीरे धीरे इस कदर बांध लेती है कि हर दृश्य के खत्म होने के बाद अगले सीन की उत्सुकता जागती रहती है।

नाटक देखकर मैं सोचने लगा कि हम सुख और सुविधा के कितने आदि हो गए हैं कि अब विरोध करना ही भूल गए हैं।

शिल्पी की इंडिया गेट, जंतर मंतर पर होने वाले विरोध प्रदर्शनों में और नुक्कड़-नाटकों में उसकी उपस्थिति को लेकर की तारीफ बहुत सुनी थी सो नाटक के बाद मैंने उससे हाथ मिलाया। पीसने से तर उसके चेहरे पर लगता था मोतियों की लडि़या झूल रही हो। हाथ बेहद लचीले थे और बैठे गले से ही अपने होठों को हंसते हुए फैलाकर कहा - थैंक यू सर। मैं शर्मिंदा हुआ और कहा  - सर! नहीं सर नहीं।
उसने कहा - ओ. के. सर ! और हम दोनों हंस पड़े।
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