तमस अँधेरे अतीत के ऐसे खंडहर है जिनमें झांकते हुए डर सा लगता है.भीष्म साहनी ने फसादों की वीरानी को महसूस कर,चीखों पुकार की आवाज़ को सुना और इस सारे दर्द को उनकी कलम ने सहा.किताब के हर पन्ने पे यातना भोगे लोग खुले आस्मां में पोटलियाँ उठायें शब्दों में सिमट आये हैं.तमस कोई चमत्कार,विस्मय या कुतूहल जगाती कहानी नहीं है पर कुछ ऐसा है कि आप असहज से हो जाते हैं.
देश का विभाजन देश की आज़ादी से भी बड़ी घटना थी.मानो ज़िन्दगी किसी बड़े से अंतिम दरवाज़े पर रुक गयी थी जिसपर लिखा हुआ था-आरम्भ.
कहानी की शुरुआत में-
नत्थू कुछ कहे या न कहे कि मुराद अली चलने को हुआ था। फिर अपनी पतली-सी छड़ी अपनी टाँगों पर धीरे-धीरे ठकोरते हुए कहने लगा : ‘‘आज ही रात यह काम कर दो। सवेरे-सवेरे जमादार गाड़ी लेकर आ जायेगा, उसमें डलवा देना। भूलना नहीं। वह अपने-आप सलोतरी साहिब के घर पहुँचा देगा। मैं उसे कह दूँगा। समझ लिया ?’’
नत्थू के हाथ अभी भी बँधे लेकिन चरमराता पाँच का नोट जेब में पड़ जाने से मुँह में से बात निकल नहीं पाती थी। काला सूअर मस्जिद के सामने मरा पाया जाता है.हवा में ज़हर फ़ैल चूका था.सूअर, गाय और इंसान काटने में कोई फर्क नहीं बचा था ऐसे में हुकूमत बस तमाशा देख रही थी.
डिप्टी कमिशनर रिचर्ड अपनी पत्नी लीज़ा से कहता है -हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच तनातनी बढ़ रही है,शायद फसाद होंगें.
बस में से नारे गूंजने लगे:
''हिन्दू-मुस्लिम -एक हो!"
"हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद-जिंदाबाद!"
"अमन कमेटी-जिंदाबाद!"
लोगों ने झांक-झांक कर बस के अंदर देखा,कौन आदमी था जो पहले से बस में बैठकर आया था और लाउडस्पीकर पर नारे लगा रहा था बहुत से लोगों ने उसे नहीं पहचाना कुछ एक ने पहचान भी लिया.नत्थू मर चुका था,वरना नत्थू यहाँ मौजूद होता तो उसे पहचानने में देर नहीं लगती.मुराद अली था.उसकी पतली सी छड़ी उसकी टांगों के बीच में पड़ी थी और छोटी-छोटी आँखें दांयें-बांयें देखी जा रही थीं और बस में से नारे गूँज रहे थे.
"ये लोग आपस में लड़ेंगे?लन्दन में तो तुम कहते थे ये लोग तुम्हारे खिलाफ़ लड़ रहे है."
"हमारे खिलाफ़ भी लड़ रहें है और आपस में भी लड़ रहें हैं."
"धर्म के नाम पर आपस में लड़ते हैं,देश के नाम पर हमारे साथ लड़ते है."रिचर्ड ने मुस्कराकर कहा.
अफ़वाहों का मुश्क काफूर लगा के दंगे अग्निवाण सा सब स्वाह कर रहे थे.किसी पीर फकीर की बददुआ लगी थी की शहर के शहर तबाह हो रहे थे.जिन मुहल्लों में सांझे चूल्हे हुआ करते थे वहां लीकें खिंच गयी थी.आँखों में विश्वास की जगह संशय और भय ने ले ली. विश्वास परखे गये टूटे भी और जुड़े भी.
चाय की दूकान पर केतली पर चढ़ाया गया पानी सुबह से खौलता रहा,दूकान के सामने दोनों बेंच खाली पड़े थे.पहले बेंचो पर भीड़ लगी रहती थी.गाँव का कोई आदमी नहीं था जो आता जाता हरनाम की दूकान पर न बैठता हो.बंतो ने कल शाम से ही कहना शुरू कर दिया था इस गाँव से निकल चलो पर हरनाम नहीं माना.,चलती दुकान छोड़ कर कैसे भाग जाये?
"सुन भागे भरिये (किस्मत वालिये)हमने किसी का कुछ देना नहीं है,किसी का बुरा सोचा नहीं है,किसी का बुरा किया नहीं है.ये लोग भी हमारे साथ कभी बुरी तरह पेश नहीं आए हैं.तेरे सामने ,कुछ नहीं तो दस बार करीम कहाँ कह गया है : आराम से बैठे रहो,तुम्हारी तरफ कोई आँख उठा कर भी नहीं देखेगा.अब करीम खान से बड़ा मोतबर इस गाँव में और कौन होगा?सारे गाँव में एक ही तो सिख घर है .इन्हें गैरत नहीं आएगी की हम निहत्थों पर हाथ उठाएंगे?
बन्तो चुप हो गयी.तर्क का जवाब तो तर्क में दिया जा सकता है पर विश्वास का जवाब तर्क के पास नहीं.
और जब दोपहर ढलने को आई तो ढक्की पर से उसे किसी के क़दमों की परिचित-सी आहट आई.करीम खान लाठी टेकता चला आ रहा था.हरनाम का ढाढस बंधा.
करीम खान दुकान के सामने आया पर रुका नहीं.न ही हरनाम की और मुँह किया,केवल चाल धीमी कर दी और खंखारने के बहाने बुदबुदाया:
"हालत अच्छी नहीं हरनाम सिंह ,तूं चला जा"
तभी पहली बार हरनाम के विश्वास की टेक बुरी तरह हिल गयी.फिर भी हरनाम सिंह इतना घबराया नहीं जितना उदास हो गया.
कैसा लगता है, सालों साल एक जगह रहते रहते एकाएक बेघर हो जाना,परदेसी हो जाना? पीछे छूटते घरों से पांव कांपते होंगे.जिस अँधेरे से डर लगता था वही अँधेरा आसरा बना हुआ था.
अँधेरा...
जिसमें लोग खुद को सुरक्षित महसूस करते थे.
दीवारें मनुष्य को छिपाए रहती हैं,पर यहाँ कोई दीवार न थी.केवल टीले थे,कहीं कहीं पर चट्टानें थीं जिनके पीछे मनुष्य छिप सकता था पर कितनी देर के लिए?कुछ ही घंटों में रात का अँधेरा छंट जायेगा और वे फिर से जैसे नंगे हो जायेंगे,सर छिपाने की जगह नहीं मिलेगी.
"इस ढोक में चल कर किसी का दरवाज़ा खटखटाते हैं.उसके दिल में रहम हुआ तो आसरा दे देगा,न हुआ तो जो गुरु महाराज को मंजूर है."
"तुम इस ढोक में जानते किसी को नहीं हो?"
हरनाम सिंह मुस्करा दिया:
"जहाँ सबको जानता था.वहाँ किसी ने आसरा नहीं दिया.सामान लूट लिया और घर को आग लगा दी.यहाँ जानने वालो से क्या उम्मीद हो सकती है?उन लोगों के साथ तो मैं खेल कर बड़ा हुआ था..."
आज़ादी के बारे में सोचने का वक़्त, भविष्य के मनसूबे बाँधने का वक़्त, जान बचाने में बीत रहा था. आस्मां का नीला रंग धुआं धुआं सा था. किवाड़ खटखटाए नहीं तोड़े जा रहे थे. ज़िन्दगी की बेबसी के बावजूद जहाँ जिंदा रहना जरूरी था, चाहे धर्म बदल के ही सही. वहीँ मरने की राह न देखते हुए कुछ जिंदगियां पहले ही आत्महत्या कर रही थीं. जब फसादों का खेल चरम पे पहुँच गया तो हुकूमत के जहाज़ आस्मां में उड़ने लगे.क्या लुटा, क्या बचा, जोड़ जमा किये जाने लगे.
"आज तहसील नूरपुर के कुछ आंकड़े मिले हैं.मरने वालों की संख्या में बहुत अंतर नहीं.जितने हिन्दू-सिख लगभग उतनें ही मुसलमान."
शांति के बाद अमन कायम करने की बातें होने लगी, मीटिंगें बुलाई जाने लगी, अमन की बस 'पहले-दौरे' पे रवाना होने लगी.
चाय की दूकान पर केतली पर चढ़ाया गया पानी सुबह से खौलता रहा,दूकान के सामने दोनों बेंच खाली पड़े थे.पहले बेंचो पर भीड़ लगी रहती थी.गाँव का कोई आदमी नहीं था जो आता जाता हरनाम की दूकान पर न बैठता हो.बंतो ने कल शाम से ही कहना शुरू कर दिया था इस गाँव से निकल चलो पर हरनाम नहीं माना.,चलती दुकान छोड़ कर कैसे भाग जाये?
"सुन भागे भरिये (किस्मत वालिये)हमने किसी का कुछ देना नहीं है,किसी का बुरा सोचा नहीं है,किसी का बुरा किया नहीं है.ये लोग भी हमारे साथ कभी बुरी तरह पेश नहीं आए हैं.तेरे सामने ,कुछ नहीं तो दस बार करीम कहाँ कह गया है : आराम से बैठे रहो,तुम्हारी तरफ कोई आँख उठा कर भी नहीं देखेगा.अब करीम खान से बड़ा मोतबर इस गाँव में और कौन होगा?सारे गाँव में एक ही तो सिख घर है .इन्हें गैरत नहीं आएगी की हम निहत्थों पर हाथ उठाएंगे?
बन्तो चुप हो गयी.तर्क का जवाब तो तर्क में दिया जा सकता है पर विश्वास का जवाब तर्क के पास नहीं.
और जब दोपहर ढलने को आई तो ढक्की पर से उसे किसी के क़दमों की परिचित-सी आहट आई.करीम खान लाठी टेकता चला आ रहा था.हरनाम का ढाढस बंधा.
करीम खान दुकान के सामने आया पर रुका नहीं.न ही हरनाम की और मुँह किया,केवल चाल धीमी कर दी और खंखारने के बहाने बुदबुदाया:
"हालत अच्छी नहीं हरनाम सिंह ,तूं चला जा"
तभी पहली बार हरनाम के विश्वास की टेक बुरी तरह हिल गयी.फिर भी हरनाम सिंह इतना घबराया नहीं जितना उदास हो गया.
कैसा लगता है, सालों साल एक जगह रहते रहते एकाएक बेघर हो जाना,परदेसी हो जाना? पीछे छूटते घरों से पांव कांपते होंगे.जिस अँधेरे से डर लगता था वही अँधेरा आसरा बना हुआ था.
अँधेरा...
जिसमें लोग खुद को सुरक्षित महसूस करते थे.
दीवारें मनुष्य को छिपाए रहती हैं,पर यहाँ कोई दीवार न थी.केवल टीले थे,कहीं कहीं पर चट्टानें थीं जिनके पीछे मनुष्य छिप सकता था पर कितनी देर के लिए?कुछ ही घंटों में रात का अँधेरा छंट जायेगा और वे फिर से जैसे नंगे हो जायेंगे,सर छिपाने की जगह नहीं मिलेगी.
"इस ढोक में चल कर किसी का दरवाज़ा खटखटाते हैं.उसके दिल में रहम हुआ तो आसरा दे देगा,न हुआ तो जो गुरु महाराज को मंजूर है."
"तुम इस ढोक में जानते किसी को नहीं हो?"
हरनाम सिंह मुस्करा दिया:
"जहाँ सबको जानता था.वहाँ किसी ने आसरा नहीं दिया.सामान लूट लिया और घर को आग लगा दी.यहाँ जानने वालो से क्या उम्मीद हो सकती है?उन लोगों के साथ तो मैं खेल कर बड़ा हुआ था..."
आज़ादी के बारे में सोचने का वक़्त, भविष्य के मनसूबे बाँधने का वक़्त, जान बचाने में बीत रहा था. आस्मां का नीला रंग धुआं धुआं सा था. किवाड़ खटखटाए नहीं तोड़े जा रहे थे. ज़िन्दगी की बेबसी के बावजूद जहाँ जिंदा रहना जरूरी था, चाहे धर्म बदल के ही सही. वहीँ मरने की राह न देखते हुए कुछ जिंदगियां पहले ही आत्महत्या कर रही थीं. जब फसादों का खेल चरम पे पहुँच गया तो हुकूमत के जहाज़ आस्मां में उड़ने लगे.क्या लुटा, क्या बचा, जोड़ जमा किये जाने लगे.
"आज तहसील नूरपुर के कुछ आंकड़े मिले हैं.मरने वालों की संख्या में बहुत अंतर नहीं.जितने हिन्दू-सिख लगभग उतनें ही मुसलमान."
शांति के बाद अमन कायम करने की बातें होने लगी, मीटिंगें बुलाई जाने लगी, अमन की बस 'पहले-दौरे' पे रवाना होने लगी.
बस में से नारे गूंजने लगे:
''हिन्दू-मुस्लिम -एक हो!"
"हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद-जिंदाबाद!"
"अमन कमेटी-जिंदाबाद!"
लोगों ने झांक-झांक कर बस के अंदर देखा,कौन आदमी था जो पहले से बस में बैठकर आया था और लाउडस्पीकर पर नारे लगा रहा था बहुत से लोगों ने उसे नहीं पहचाना कुछ एक ने पहचान भी लिया.नत्थू मर चुका था,वरना नत्थू यहाँ मौजूद होता तो उसे पहचानने में देर नहीं लगती.मुराद अली था.उसकी पतली सी छड़ी उसकी टांगों के बीच में पड़ी थी और छोटी-छोटी आँखें दांयें-बांयें देखी जा रही थीं और बस में से नारे गूँज रहे थे.