Monday, June 27, 2011

डायरी के पन्ने : आंद्रेई तारकोवस्की - 2


डाकिए की ओर से: एक नज़र में तारकोवस्की का हाल भी हमारे देश के महान फिल्मकार ऋत्विक घटक जैसा ही था। जब फिल्में बनाते सरकार विद्रोह या बकवास करार देकर प्रतिबंध लगाती। दोनों जगह यह साजिश थी। जैसे ऋत्विक घटक के जाने के बाद सिनेमा के छात्रों को उनकी बनाई फिल्में देखने को कहा जाता है। तारकोवस्की ने अपनी डायरी में मठाधीशों और सरकारी अधिकारियों को जमकर कोसा है। यहां यह सवाल भी उठता है कि देश में विषय वाइज विशेषज्ञ होना चाहिए अन्यथा इज्जत नहीं मिलती। उदाहरणार्थ हमारे यहां स्पोटर्स में खिलाडि़यों ज्यादा जानकार नेता होते हैं। देखिए चीजें कैसे लिंक्ड हो जाती हैं और कहां से कहां चली जाती हैं। 


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1973 
5 फरवरी
यूगोस्लाविया द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय समारोह में रूबल्योव को ग्रैंड प्राइज प्राप्त हुआ। 
नजायज़ मानी गई इस फिल्म रूबल्योव को यह चैथा अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। 

17 जून,
रूबल्योव को स्वीडर में दिखाया जा रहा है, एंडरसन के बताए अनुसार बर्गमन ने कहा उन्होंने इतनी बढि़या फिल्म आज तक नहीं देखी। 

उसे पूरी तरह खोलना होगा, उससे सीधे सीधे भिड़ना होगा, उसकी तरफ दूर से नहीं आया जा सकेगा, छिलका निकाल फेंकना होगा, उसे अपने ही ढंग से पढ़ो, कलाकार के एकांत की ट्रेजेडी ही सर्वोपरि है और सत्य को समझने के लिए उसकी कीमत चुकाना भी।

1975 
3 जुलाई
कोई योजना कैसे परिपक्व होती है ?

निस्संदेह यह अत्यंत भेदभरी और अत्यंत दुग्र्राह्य प्रक्रिया है। हमारे बंधन से छुटी वह अचेतन में आज़ाद जारी रहती है, और तंतःकरण की दीवारों पर निश्चिमत रूप धारण करती है। फिर अंतःकरण का रूप ही उसे विलक्षण बनाता है, दरअसल सिर्फ अंतःकरण ही उसके उस बिंब की प्रच्छन्न गर्भावधि तय करता है जो सामान्य नज़रों से नहीं देखा जा सकता। 

1976
8 फरवरी 
मेरा पूरा यकीन है कि समय उत्क्रमणीय है, किसी भी हालत में वह सीधी रेखा में नहीं चलता। 

13 सितंबर
हम या तो एक दूसरे के गुणों को कम आंकते हैं या फिर बढ़ा चढ़ा कर बताते है। बहुत कम लोग दूसरों का आकलन उनकी योग्यता के आधार पर करने के काबिल होते हैं। यह कोई खास तरह की प्रतिभा होती है, सचमुच यहां तक कह सकता हूं कि केवल कुछ एक महान लोग ही इस योग्य होते हैं। 

1977
28 दिसंबर
कमज़ोरी महान चीज़ है, ताकत गौण है। जब मनुष्य जन्म लेता है त बवह कमज़ोर और कोमल होता है। जब मरता है तब मजबूत और कठोर होता है। 
जब एक पेड़ उगता है तब वह लचीला और मुलायम होता है, और जब वह सूख कर कड़क होता है तब मर जाता है। कठोरता और ताकत मृत्यु के सहचर हैं। 
नमनशीलता और कमज़ोरी ‘होने‘ की ताज़गी के निशान हैं। जो कड़ा हो गया वह कभी सफल नहीं होगा।  (लाओ-त्से)

1978
13 अप्रैल
वाकई... मैं दि मास्टर एंड मार्गारिता पर फिल्म क्यों नहीं बना रहा ? क्योंकि वह किसी प्रतिभाशाली लेखक का उन्यास है ? हालांकि, सवाल गद्य कैसा क्य है यह नहीं, विषयवस्तु का निरूपण कैसा और क्या है इसका नहीं नहीं, कथानक का नहीं, भाषा का भी नही !

मध्य-युग और नवजागरण की सारी चित्रकला की और संगीत कला की, अंततः एक ही, वही की वही, विषयवस्तु रही। द्यूरर, क्रोनेच, ब्रूघेल, बाख, हांदेल, लिओनार्दो, माइकलएंजेलो आदि सभी की...

इसमें आदिम स्त्रोतों को धंुधला करने जैसी कोई बात नहीं। यहां बात है दक्षता की, और वस्तु की, और फिर कलाकार ही उस्ताद है, क्योंकि उसे मालूम है किससे क्या बनाना है। 

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पुस्तक : अनंत में फैलते बिम्ब : तारकोवोस्की का सिनेमा
साभार : संवाद प्रकाशन, हिंदी अनुवाद.

पुनःश्च:- आज एस पी सिंह की पुण्यतिथि है। पत्रकारिता के इस पारखी पत्रकार को डाकिए का सलाम। कुछ आलेख यहां और एक यहाँ पढ़ा जा सकता है।

Tuesday, June 21, 2011

दोस्त, महुआ और लड़कियां…

 

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साल का आखिरी दिन।

कल सारी दुपहर बाहर बितायी।

बहुत अच्छे दोस्त, जिनके साथ भीतर का बुझा, तुडा-मुडा बचपन मुद्द्त बाद धूप में आया। दोपहर को जिन पी। सर्दियों की धूप, जिन, हँसी और दूर से सुनाई देती मवेशियों की घंटियाँ। पीछे भीमबेटका की चट्टानें। मैं कुछ दूर टहलने निकल गया। बहुत बडे काले पत्थरों पर लेटा, वे अब भी दोपहर की धूप से गर्म थे। एक टूटा हुआ भग्न किले की फ़ाँक जैसा आकाश। नीचे दूर अथाह जंगल। पेडों का झूमता नीला सागर, हवा में हौले-हौले हिलोरें लेता हुआ।

हल्का-सा अँधेरा, शाम। महुआ के लिये एक जने को गाँव भेजा, तो वह वहीं अटक गया। मनजीत ने टहनियाँ, घास, पत्ते इकट्ठा करके ढेर बनाया। कुछ ही देर में आग की लपटें उठने लगीं। आग का देखना भी कैसा जिद्दी नशा है, आँखें उठती नहीं। मैं अपनी अधूरी लिखी कहानी के बारे में सोचने लगा। क्या कहानी का अंत आग से सुलगाकर सुलझाया जा सकता है?

       चिन्ता शुरु ही हुयी थी कि जीप आ पहुँची, गाँव से लाया हुआ ताज़ा महुआ। गाडी की हैडलाईट्स में वह स्कल्पचर देखा, जो स्वामी और मनजीत ने जोडकर बनाया था। पत्थरों के ठूँठ पर बाँस की चिप्पियाँ, आकाश के क्षितिज पर एक सलीब की तरह खडी हुयी, जिनके नीचे मनजीत बावा बिल्कुल एक क्राइस्ट की तरह दिखाई दे रहा था।

       महुआ खत्म ! सब एक बार फ़िर शुरु। नीचे गाँव में पहुँचे, महुआ की तलाश में। आखिर देवराज की सलाह पर हम ’मेन रोड’ से हटकर कहीं बहुत भीतर खेतों के बीच चलते रहे। कहाँ रुकें, कब रुकें, कुछ पता नहीं। अचानक सरदारजी ने मेरा कन्धा पकडकर ऊपर की ओर संकेत किया।

       सारा आकाश तारों से अटा था। भोपाल के आसपास इतने तारे उग सकते हैं, यह चमत्कार सा जान पडा। फ़िर महुआ आया। हल्का गुनगुना-सा, गर्म भट्टी से ताज़ा-ताज़ा निकला हुआ। किन्तु मैं अब तक होश से चिपका था और उसे छोडना नहीं चाहता था। बहुत देर तक आकाश को देखता रहा। तारे, पूरा चमकता आकाश। दूर-दूर तक फ़ैले खेत। महुआ में भीगे दोस्त, गाँव के झोपडे, पता नहीं कितनी देर वहाँ बैठे रहे।

      वापस लौटते हुये जितेन्द्र नींद में बेहोश, खुर्राटों में लथपथ। मैं कुछ दूर हलकी नींद में तैरकर किनारे पर आया, तो भीतर एक याद कचोटने लगी, जो सारी शाम भीतर थी और अब ठिठुरते हुये बाहर निकल आयी थी। पहली बार पता चला, कि हिन्दुस्तान में ऎसे सुखद दिनों में लडकियों का न होना सबसे खाली चीज़ है जिसे कोई नहीं भर सकता, न महुआ, न तारे, न आग। ये सब अपने में सुंदर हैं – लेकिन कितने अधूरे और सूखे ! शायद इसीलिये हम इतना हँसते हैं, पीते हैं, थककर सो जाते हैं।

     आज वर्ष का अन्तिम दिन है, किन्तु वह मेरे लिये कल पूरा हो गया।

 

३१ दिसम्बर, १९८१, निर्मल वर्मा की डायरी ’धुंध से उठती धुन’ से साभार…

Thursday, June 16, 2011

खूब पहचान लो असरार हूँ मैं...





डाकिए की ओर से: सुबह मजाज़ की सोहबत में गुज़री, तो हैंगओवर सा हो गया, पर ये नशा ज़रूरी था। अभी चिठ्ठी डालने निकला तो सोचा क्यों न यही खत आप तक भी पहुंचाया जाए। वैसे भी एक नज़र फेसबुक पर डाली तो लोहा गर्म लगा। कुरजां (जयपुर से नई मैगज़ीन) में भी अलसुबह इनके बारे में विस्तार से जाना। लेकिन फिलहाल यहां एक छोटा सा पोस्टकार्ड डाल रहा हूं। खत और भी आएंगे और तारकोवोस्की की डायरी भी चलती रहेगी, मगर फिलहाल यह फुहार...
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मजाज़ लखनवी हकीकत में उस असरार का नाम है जिसे जमाना उसकी मौत के बाद भी समझने की कोशिश में मुब्तला है। उर्दू के तमाम शायरों में अगर सबसे शायराना जिंदगी किसी की रही तो ये मजाज़ ही थे। उर्दू अदब की दुनिया में ये किस्से पहले ही अमर हो चुके हैं कि एक ज़माने में कुंवारी लड़कियां अपने बेटों के नाम मजाज़ के नाम पर रखने की कसमें खातीं थीं। मजाज़ के लिए लड़कियों में लाॅटरी निकाली जाती थीं और उनकी नज्में गल्र्स होस्टल के तकियों में दबी मिलती थीं लेकिन मजाज़ ताजिंदगी जिन्स-ए-उल्फत (प्यार) के तलबगार ही रहे। एक दफा अलीगढ़ विश्वविद्यालय में ही इस्मत चुगताई ने उनसे कहा कि लड़कियां मजाज़ से मुहब्बत करती हैं, इस पर मजाज़ ने तपाक से कहा - ‘और शादी पैसे वालों से कर लेती हैं‘।

जिं़दगी में सब कुछ बदलता रहा लेकिन हाजि़रजवाबी का ये असासा हर दौर में मजाज़ के साथ रहा। जब इस्मत चुगताई ने उनसे पूछा कि मजाज़ तुम्हारी जिंदगी को बर्बाद लड़की ने किया या शराब ने तो मजाज़ ने कहा कि मैंने दोनों को बराबर का हक दिया है। मजाज़ के ऐसे कई लतीफे जिन्हें बाद में मजाज़ीफे कहा जाने लगा, आज भी लखनऊ की आबो-हवा में बिखरे पड़े हैं। लेकिन इनके पीछे की तल्खी यह है कि इन्हें कहने वाला पूरी जिंदगी बेहद दुखी रहा। 

उर्दू के जाॅन कीट्स कहे जाने वाले असराल उल हक मजाज़ की पैदाइश 1911 में रूदौली कस्बे में हुई थी। मजाज़ की शायरी को मुकाम अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में मिला। यहां उस दौर में मशहूर शायरों की एक पूरी जमात थी जिनमें मोईन अहसन जज्बी, अली सरदार जाफरी और जांनिसार अख्तर भी शमिल थे। लेकिन इन सबमें जो नाम सबसे ज्यादा मकबूल हुआ वह मजाज़ लखनवी का ही था। अलीगढ़ मुसमिल यूनिवर्सिटी का तराना भी मजाज़ का ही लिखा हुआ है। मजाज़ प्रगतिशीलता के सारे तत्वों के स्वाभाविक समर्थक थे। असल में नाजुक तबीयत वाले मजाज़ हर उस व्यक्ति से नजदीकी महसूस करते थे जिसे उसका बुनियादी हक नहीं मिला। यही निकटता उन्हें प्रगतिशीलता की राह पर ले गई। स्त्री मुक्ति और नारीवाद के जिस आंदोलन की बात आज होती है उसे मजाज़ 30 के दशक में ही अपनी नज्मों के ज़रिए कह रहे थे। कम लोग जानते हैं कि मजाज़ साहब के पुश्तैनी घर में आज लड़कियों का स्कूल चल रहा है। 

मजाज़ तरक्कीपसंद शायरों में होते हुए भी अपनी रूमानियत के चलते अलग ही नज़र आते हैं। फैज अहमद फैज उनके बारे में लिखते हैं - मजाज़ की इंकलाबियत आम इंकलाबी शायरों से अलग है। आम इंकलाबी शायर इंकलाब को लेकर गरजते हैं, सीना कूटते हैं इंकलाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते। वो इंकलाब की भीषणता को देखते हैं उसके हुस्न को नहीं पहचानते। 

मजाज़ की शायरी अल्फाज की कारीगरी से नहीं बनती, वहां भावों की सहज आमद है। इसलिए रूमानी शायरी में तो वो कीट्स का दर्जा रखते ही हैं। तरक्कीपसंद शायरी में ज़रा भी बनावटी नहीं लगते। मजाज़ की शायरी की गहरी समझ रखने वाले मोहसिन जमाल कहते हैं - अगर मजाज़ को उतनी लंबी उम्र मिली होती जितनी उनके साथ के बाकी शायरों को मिली तो इसमें कोई शक नहीं कि मजाज़ का नाम ग़ालिब इकबाल के बाद मकाम पाता। मजाज़ को याद करते हुए उनकी भतीजी सहबा अली कहती हैं - मजाज़ साहब की सरलता का अगर लोगों ने गलत फायदा न उठाया होता तो हम इतनी जल्दी उस बड़े शायर से महरूम न होते। जोश मलीहाबादी ने एक बार मजाज़ को सामने घड़ी रखकर पीने की सलाह दी तो मजाज़ ने कहा - आप घड़ी रख के पीते हैं, मैं घड़ा रख के पीता हूं। इस बेतहाशा शराबनोशी ने मजाज़ को मौत के मुहाने पर ला खड़ा किया। कई बार वो पागलपन के दौरे के शिकार हो चुके थे। 

मजाज़ की मौत के बाद उन पर जितना लिखा पढ़ा गया उतना किसी और शायर पर नहीं लिखा गया। 2006 में भारत सरकार ने उनकी याद में एक डाक टिकट भी ज़ारी किया। लखनऊ में मजाज़ की खस्ताहाल कब्र पर एक शेर लिखा है ‘‘अब इसके बाद सुबह है और सुबह-ए-नौ मजाज़, हम पर है खत्म शामे गरीबाने लखनऊ...''

 साभार: तहलका, उत्तराखंड संस्करण, फरवरी, 2011

Monday, June 6, 2011

डायरी के पन्ने : आंद्रेई तारकोवस्की - 1


डाकिये कि ओर से:  ये अजीब है कि हर युग में प्रतिभाशाली को कष्ट उठाने पड़े हैं. मातृभूमि भी कई बार छोडनी पड़ी है. इस दर्द के साथ सर्वोत्कृष्ट काम करना और फिर भी गरीबी रहना एक और भी अजीब स्थिति है. 

आंद्रेई तारकोवस्की को सिनेमा का मास्टर माना जाता है. सोलारिस, आंद्रेई रुब्ल्योब, मिरर, स्टाकर, नास्टेल्जिया और द सेक्रिफाइस बनाने वाले इस महान रूसी फिल्कार को सिनेमा की नई दृश्य-भाषा देने के लिए डाकिए का सलाम। 

यहां पेश है 1970 से 1986 तक की उनकी डायरी के महत्वपूर्ण अंश जो मैं यहां एडिट कर दे रहा हूं।

 विभिन्न कडि़यों के तहत लंबी चलेगी और आशा है आप सब जुड़े रहेंगे। 


1970

27 अगस्त

ओवचिन्निकोव द्वारा रचित जापान के शानदार शब्दचित्रों को नोवी मीर में पढ़ रहा हूं। विलक्षण! सूक्ष्म और प्रखर। मैं कितना भाग्यवान कि ओसाका जाने से पूर्व उन्हें पढ़ पाया।

14 सितंबर

दाॅस्तोएवस्की दो मोमबत्तियों की रोशनी में पढ़ते थे। उन्हें लैंप पसंद नहीं थे। काम के दौरान बेहद धूम्रपान करते। यदा कदा खूब कड़क चाय पीते। स्ताराया रूस्स्या से आरंभ हुआ उनका जीवन शुरू से ही ऊब और नीरसता से भरा था। उनका प्रिय रंग - - सागर की लहरों का था, अपनी नायिकाओं को उन्होंने प्रायः उसी रंग में सजाया है। 

9 जून

किसी भी किस्म की प्रशंसा का एक लक्षण यह कि अंततः वह ग्लानि में, हताशा में, यहां तक कि किसी-न-किसी हैंग ओवर में, बल्कि अपराध - भावना में जा डुबाती है। 

मैंने कहा है कि मेरा काम है कि सोवियत सिनेमा के उच्च स्तर को कायम रखूं, न कि सामयिक अथवा प्रासंगिक के पीछे भागूं। 

1973

27 जनवरी 

जिंदगी कितनी उदास है! मुझे उस शख्स़ होता है जो अपना काम राज्य से इज़ाज़त लिए बगैर कर सकते हैं। यों तो हर कोई, प्रायः हर जगह, आज़ादी से काम कर सकता है, केवल रंगमंच और सिनेमा को छोड़कर (मैं टेलीविज़न को शामिल नहीं कर रहा, क्योंकि मैं उसे कला नहीं मानता)। बेशक उन्हें पगार नहीं मिलती, लेकिन अपना काम तो कर सकते हैं।

सत्ताधारी कितने स्थूलबुद्धि हैं! क्या उन्हें साहित्य, कला, संगीत, चित्रकला, सिनेमा की सचमुच जरूरत महसूस होती है ? बेशक कतई नहीं। उलटे, उनके बगैर जीवन कितना आसान होगा ! (ऐसा वे सोचते होंगे)

मैं काम करना चाहता हूं, बस। और कुछ नहीं। काम ! यह बेशक बेतुका उन्माद और अपराध है, कि इतालवी समीक्षकों, समाचार पत्र-पत्रिकाओं ने जिस निर्देशक को प्रतिभावान कहा उसे यहां बेरोज़गार रहने पर मज़बूर किया जा रहा है। 

दरअसल, मेरे ख्याल से जैसे तैसे उच्च पदों पर जा पहुंचे औसत लोगों ही की ये करतूतें मेरे खिलाफ हो सकती हैं। बेशक, औसत दर्जे के लोग कलाकारों को झेल नहीं पाते, और अधिकारीगण तो निर्विवाद रूप से घटिया स्तर ही के हैं। 

सबसे सुंदर पेड़ कौन सा है ? चिरबेल का। उसे ही पूरा विकसित होने में खूब लंबा समय लगता है। कौन जल्दी बढ़ता है ? - - बांस या पहाड़ी पीपल ? पहाड़ी पीपल बहुत सुंदर पेड़ है।

ज़रा सा और जानिये - यहाँ.
पुस्तक : अनंत में फैलते बिम्ब : तारकोवोस्की का सिनेमा
साभार : संवाद प्रकाशन, हिंदी अनुवाद. 
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