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Monday, June 27, 2011
डायरी के पन्ने : आंद्रेई तारकोवस्की - 2
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Tuesday, June 21, 2011
दोस्त, महुआ और लड़कियां…
साल का आखिरी दिन।
कल सारी दुपहर बाहर बितायी।
बहुत अच्छे दोस्त, जिनके साथ भीतर का बुझा, तुडा-मुडा बचपन मुद्द्त बाद धूप में आया। दोपहर को जिन पी। सर्दियों की धूप, जिन, हँसी और दूर से सुनाई देती मवेशियों की घंटियाँ। पीछे भीमबेटका की चट्टानें। मैं कुछ दूर टहलने निकल गया। बहुत बडे काले पत्थरों पर लेटा, वे अब भी दोपहर की धूप से गर्म थे। एक टूटा हुआ भग्न किले की फ़ाँक जैसा आकाश। नीचे दूर अथाह जंगल। पेडों का झूमता नीला सागर, हवा में हौले-हौले हिलोरें लेता हुआ।
हल्का-सा अँधेरा, शाम। महुआ के लिये एक जने को गाँव भेजा, तो वह वहीं अटक गया। मनजीत ने टहनियाँ, घास, पत्ते इकट्ठा करके ढेर बनाया। कुछ ही देर में आग की लपटें उठने लगीं। आग का देखना भी कैसा जिद्दी नशा है, आँखें उठती नहीं। मैं अपनी अधूरी लिखी कहानी के बारे में सोचने लगा। क्या कहानी का अंत आग से सुलगाकर सुलझाया जा सकता है?
चिन्ता शुरु ही हुयी थी कि जीप आ पहुँची, गाँव से लाया हुआ ताज़ा महुआ। गाडी की हैडलाईट्स में वह स्कल्पचर देखा, जो स्वामी और मनजीत ने जोडकर बनाया था। पत्थरों के ठूँठ पर बाँस की चिप्पियाँ, आकाश के क्षितिज पर एक सलीब की तरह खडी हुयी, जिनके नीचे मनजीत बावा बिल्कुल एक क्राइस्ट की तरह दिखाई दे रहा था।
महुआ खत्म ! सब एक बार फ़िर शुरु। नीचे गाँव में पहुँचे, महुआ की तलाश में। आखिर देवराज की सलाह पर हम ’मेन रोड’ से हटकर कहीं बहुत भीतर खेतों के बीच चलते रहे। कहाँ रुकें, कब रुकें, कुछ पता नहीं। अचानक सरदारजी ने मेरा कन्धा पकडकर ऊपर की ओर संकेत किया।
सारा आकाश तारों से अटा था। भोपाल के आसपास इतने तारे उग सकते हैं, यह चमत्कार सा जान पडा। फ़िर महुआ आया। हल्का गुनगुना-सा, गर्म भट्टी से ताज़ा-ताज़ा निकला हुआ। किन्तु मैं अब तक होश से चिपका था और उसे छोडना नहीं चाहता था। बहुत देर तक आकाश को देखता रहा। तारे, पूरा चमकता आकाश। दूर-दूर तक फ़ैले खेत। महुआ में भीगे दोस्त, गाँव के झोपडे, पता नहीं कितनी देर वहाँ बैठे रहे।
वापस लौटते हुये जितेन्द्र नींद में बेहोश, खुर्राटों में लथपथ। मैं कुछ दूर हलकी नींद में तैरकर किनारे पर आया, तो भीतर एक याद कचोटने लगी, जो सारी शाम भीतर थी और अब ठिठुरते हुये बाहर निकल आयी थी। पहली बार पता चला, कि हिन्दुस्तान में ऎसे सुखद दिनों में लडकियों का न होना सबसे खाली चीज़ है जिसे कोई नहीं भर सकता, न महुआ, न तारे, न आग। ये सब अपने में सुंदर हैं – लेकिन कितने अधूरे और सूखे ! शायद इसीलिये हम इतना हँसते हैं, पीते हैं, थककर सो जाते हैं।
आज वर्ष का अन्तिम दिन है, किन्तु वह मेरे लिये कल पूरा हो गया।
३१ दिसम्बर, १९८१, निर्मल वर्मा की डायरी ’धुंध से उठती धुन’ से साभार…