Saturday, January 21, 2012

तंज़निगारी-1


डाकिए की ओर से: इब्ने इंशा की 'उर्दू की आखि़री किताब' हाथ आई है। इसका पाठ किसी टीचर का स्टूडेंट को दिया लेसन सा है। तंजनिगारी के फितरतन जुमले छोटे और मारक हैं। डाकिए ने तकनीकी सहूलियत के बायस नुक्तों से परहेज किया है। पहली किस्त.
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हमारा मुल्क

ईरान में कौन रहता है ?
ईरान में ईरानी कौम रहती है।
इंगलिस्तान में कौन रहता है ?
इंगलिस्तान में अंग्रेज़ी कौम रहती है। 
फ्रांस में कौन रहता है ?
फ्रांस में फ्रांसीसी कौम रहती है।
ये कौन सा मुल्क है?
ये पाकिस्तान है।
इसमें पाकिस्तानी कौम रहती होगी?
नहीं, इसमें पाकिस्तानी  कौम नहीं रहती है। इसमें सिन्धी कौम रहती है। इसमें पंजाबी कौम रहती है। इसमें बंगाली कौम रहती है। इसमें यह कौम रहती है। इसमें वह कौम रहती है। 
लेकिन पंजाबी तो हिन्दुस्तान में भी रहते हैं। सिन्धी तो हिन्दुस्तान में भी रहते हैं। फिर ये अलग मुल्क क्यों बनाया था?
गल्ती हुई, माफ कर दीजिए, आइन्दा नहीं बनाएंगे। 

पाकिस्तान

हद्दे अरबा (चौहद्दी) : पाकिस्तान के मशरिक में सीटो है मगरिब में सन्टो है, शुमाल (उत्तर) में ताशकन्द और जुनूब (दक्षिण) में पानी। यानी जायेमफर (भागने की जगह)किसी तरफ नहीं है ?
पाकिस्तान के दो हिस्से हैं - मशरिकी पाकिस्तान और मगरिबी पाकिस्तान। ये एक-दूसरे से बड़े फासले पर हैं। कितने बड़े फासले पर, इसका अंदाज़ा आज हो रहा है। दोनों का अपना-अपना हद्दे अरबा भी है। 
मगरिबी पाकिस्तान के शुमाल में पंजाब, जुनूब में सिन्ध, मशरिक में हिन्दुस्तान और मगरिब में सरहद और बलूचिस्तान में है। मियां ! पाकिस्तान खुद कहां वाका (स्थित) है ? और वाका है भी कि नहीं, इस पर आजकल रिसर्च चल रही है। 
मशरिकी पाकिस्तान के चारों तरफ आजकल मशरिकी पाकिस्तान ही है।

भारत

ये भारत है। गांधीजी यहीं पैदा हुए थे। यहां उनकी बड़ी इज्जत होती थी। उनको महात्मा कहते थे। चुनांचे मारकर उनको यहीं दफन कर दिया और समाधि बना दी। दूसरे मुल्कों के बड़े लोग आते हैं तो इस पर फूल चढ़ाते हैं। अगर गांधी जी न मारे जाते तो पूरे हिन्दुस्तान में अकीदतमन्दों (श्रद्धालुओं) के लिए फूल चढ़ाने के लिए कोई जगह न थी। यह मसला हमारे यानी पाकिस्तानवालों के लिए भी था। हमें कायदे आजम (जिन्ना साहब) का ममनून (कृतज्ञ) होना चाहिए कि खुद ही मर गए और सेफारती (पर्यटक) नुमान्दों की फूल चढ़ाने की एक जगह पैदा कर दी। वरना शायद हमें भी उनको मारना पड़ता। 
भारत का मुकद्दस (पवित्र) जानवर गाय है। भारतीय उसी का दूध पीते हैं, उसी के गोबर से चैका लीपते हैं। लेकिन आदमी को भारत में मुकद्दस जानवर नहीं गिना जाता। 

अकबर के नवरत्न
अकबर अनपढ़ था। बाज़ लोगों को गुमान है कि अनपढ़ होने की वजह से ही इनती उम्दा हुकूमत कर गया। उसके दरबार में पढ़े-लिखे नौकर थे। नवरत्न कहलाते थे। यह रिवायत उस ज़माने से आजतक चली आती है कि अनपढ़ पढ़े-लिखों को नौकर रखते हैं और पढ़े-लिखे इस पर फख्र करते हैं।

सबक: तुम अनपढ़ रहकर अकबर बनना पसंद करोगे या पढ़ लिख कर उसका नवरत्न ?

Wednesday, January 4, 2012

कविता के पन्नों मे नया साल: कोबायाशी इस्सा-2

(पिछली पोस्ट से जारी)
     कोबायाशी इस्सा साहब की जो बात उनको दूसरे समकालीन हाइकू के महारथियों से अलग करती थी, वह थी उनकी कविता की बच्चों जैसी अद्भुत सरलता और साधारणता। गहरी दार्शनिक गुत्थियों मे गंभीरता के साथ उलझने की बजाय वो ज्यादातर अपने आस-पास की चीजों को कविता का विषय बनाते थे और उनके तमाम हाइकू उनके इसी खिलंदड़ेपन और ह्यूमर की बानगी नजर आते हैं। कोई भी चीज उनकी कविता के परिधि से परे नही थी और उनकी उपहासात्मक नजर विषयों मे पवित्रता का फ़र्क नही देखती थी। लगातार संघर्षों से जूझते उनके जीवन ने अपने दुखों का भी मजाक बनाने की कला विकसित कर ली थी। वो खुद ही कविता के बहाने अपनी मुफ़लिसी, बीमारी, पियक्कड़ी, आलसीपन और शक्लो-सूरत का मजाक उडाते ही थे बल्कि उनकी मजे लेने की शैली चपेट मे अक्सर देवता और धार्मिक व्यक्ति भी आ जाते थे। मगर जिंदगी के प्रति इतना उपहासात्मक रवैया रखने के बावजूद उनकी तमाम उम्र विषमताओं से जूझते हुए ही बीती।
    खुद को ’शिनानो-प्रांत का भिक्षुक’ कहलाना पसंद करने वाले इस्सा की कविता मे अतिशय विद्वत्ता, विशिष्टता और पवित्रता जैसी ’असाधारणताओं’ के प्रति निषेध-भाव ही देखने को मिलता है। अपनी जिंदगी की तरह वो अपनी कविता को भी आम लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से करीब और और फलतः जमीन से जुड़ा हुआ बनाये रखते हैं। तमाम ’काव्योचित’ विषयों (तब की जापानी कविता जिन विषयों के इर्द-गिर्द घूमती थी) के प्रति नकार का भाव ही था कि वो बेहद उपेक्षणीय और साधारण सी चीजों को अपनी कविता का केंद्र बनाते थे। पशु-पक्षी और पेड़-पौधे भी उनकी कविता मे बेहद प्रभावी और सजीव रूप से उपस्थित होते थे। एक स्रोत के मुताबिक अपने जीवनकाल मे उन्होने 54 हाइकु घोंघे पर, 200 मेढक पर, 230 जुगनू पर, 150 मच्छर पर, 90 मक्खियों पर लिख डाले। कविता मे साधारणता और मानवीयता का यही आग्रह उन्हे हाइकु के दूसरे मास्टरों से अलग खड़ा करता है।
  खैर, यहाँ इस्सा के नये साल पर कुछ और उम्दा हाइकु का हिंदी तर्जुमा पेशे-खिदमत है।

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गोदाम के पिछवाड़े
तिरछा चमकता है
साल का पहला सूरज


 
(अपने जीवन के उत्तरार्ध मे उनके गाँव मे आग लग जाने से उनका घर साजो-सामान सहित जल कर खाक हो गया था। फलतः जिंदगी के बाकी तमाम दिन उन्हे जरा सी गोदाम मे रह कर गुजारने पड़े थी, जहाँ कि सूरज की रोशनी भी थोड़ी सी ही आती थी। यह हाइकु संभवतः उन्होने इसी परेशानी पर तंज कसते हुए लिखा था।)
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थोक मे अभिनंदन करता
साल की पहली बारिश का
टपकता हुआ घर

 
(अपने घर की दुर्दशा के बहाने वो अपनी आर्थिक खस्ताहाली पर भी व्यंग्य करने से नही चूकते हैं।)
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खूब है ये भी साल
भिनभिनाती आपस मे
द्वार पर मक्खियाँ


(इस्सा के हाइकु मे पशुओं-पौधों-कीड़ों की उपस्थिति बड़ी मानवीय और मूर्त होती थी, वहीं अपने अहसास उजागर करने के रूपक भी।)
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दीवार मे छेंद
कितना सुंदर तो है
मेरे साल का पहला आकाश


(यह इस्सा के तीखे हास्यबोध और जिंदगी के प्रति फ़क्कडपन का बेहतरीन उदाहरण है, जहाँ टूटे घर मे भी वो ऐसी सकारात्मकता खोज लेते हैं कि जिंदगी से कोई शिकायत न हो।)
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झोपड़ी के मच्छर
इस कम्बख्त साल भी
उड़ायेंगे दावत


(यह हाइकु भी इस्सा के खुद का मजाक उड़ाने की आदत की बानगी है। अपनी कठिन जिंदगी और रहने की दिक्कतों के बहाने मच्छरों की लाटरी खुल जाने की बात करना उनके स्वभाव के खिलंदड़ेपन की निशानी ही होगी।)
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निकल आये पंख
उड़ गया मेरा रुपिया
खतम हुआ साल


(साल के आखिर मे सारा उधार चुकता करने मे गाँठ के पैसे खतम हो जाने पर इस्सा को अचरज होता है कि इतनी मेहनत से कमाया पैसा कितनी जल्दी ’उड़’ गया, कि नये साल का स्वागत करने के लिये उनके पास धेला भी नही बचा।)
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नही खड़ी कर पाया हवेली
जिसने नही चखी शराब
गम मे खतम हुआ साल


(अपनी पियक्कड़ी का बचाव करते हुए इस्सा मजाक करते हैं कि अमीर बनने के लिये ’पीना’ भी जरूरी शर्त है, मगर बहाने से इशारा भी करते हैं कि दारू नही मिलने की वजह से उनका साल द्खद तरीके से खतम हो रहा है।)
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साल का अंत
मेरे मृत्यु-ग्रह की घंटी
भी बजती सी

 
(ताजिंदगी अपने प्रियजनों (पहले माँ, दादी, पिता फिर बीवी और बच्चे) की मौत से जूझते इस्सा की कविता मे मृत्यु बड़ी सहजता मगर अपरिहार्यता के संग नजर आती है।)
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एक नया साल
वही पुरानी बकवास
बकवास के ढेर पर इकट्ठी होती


(अपनी आर्थिक मुश्किलों से जूझते इस्सा कुढ़ते भी हैं कि साल बदलने के बावजूद परेशानियाँ यथावत रहती हैं, संग ही जिंदगी की एकरसता पर कटाक्ष भी करते हैं।)
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एक और नया साल
जब तलक नही घिसता है
बारिश रोकने का पत्थर


(यहाँ पर इस्सा अपने नये घर की खुशी ही व्यक्त करना चाहते हैं कि जब तक उनका घर बारिश रोकने मे सक्षम है उन्हे वक्त बीतने की कोई फ़िकर नही है।)
**** 
बुद्ध पर है मुझे भरोसा
अब अच्छा हो या बुरा
जाते साल को विदा


(बौद्ध-भिक्षु रहे इस्सा की कविता पर बौद्ध-दर्शन का असर साफ़ दिखता है. जो शायद उनकी जिंदगी के प्रति धैर्यपूर्ण रवैये की भी वजह रही है।)


 (चित्र: उन्नीसवीं शताब्दी के प्रसिद्द जापानी पेंटर उतागावा हिरोशिगे की मशहूर कलाकृति ’फ़ुजी और अश्तका पहाड़ पर बर्फ़बारी के बाद मौसम’. साभार-गूगल)

Tuesday, January 3, 2012

कविता के पन्नों मे नया साल: कोबायाशी इस्सा-1



केंचुली बदलते कैलेंडर के बहाने कविताओं के पन्ने पलटते हुए अगला नाम आता है कोबायाशी इस्सा का। जापान के अठारहवीं शताब्दी के इस अद्भुत संत कवि के हाइकु जापान के साहित्यिक इतिहास मे कुछ वैसा ही मुकाम रखते हैं जैसा हिंदुस्तान मे कबीर की साखियों का है। हाइकु के चार स्तंभों मे ’बाशो’, ’बुसान’ और ’शिकी’ के साथ ही उनका नाम भी शामिल है। अपने जीवन काल मे कोई 20000 हाइकु लिखने वाले इस्सा की लोकप्रियता वक्त से संग बढ़ती ही गयी है। नये साल के मौके पर उनके चुनिंदा हाइकु की ओर चलने से पहले उनसे कुछ और तअर्रुफ़ करते हैं।

कोबायाशी इस्सा (1763-1827) का 64 साल का जीवन लगातार उथलपुथल से भरा रहा। गरीब किसान परिवार मे पैदाइश, कम उम्र मे माँ का गुजर जाना, सौतेली माँ का सौतेला बरताव, बीवी से अनबन, कमउम्र मे बच्चों की मौत और ताजिंदगी गरीबी से जद्दोजहद ने उनकी जिंदगी के साथ कविता पर भी गहरा असर डाला। मगर उम्दा प्रतिभाओं को तमाम विपरीत हालातों मे ही पनाह मिलती है। जगह-जगह छोटे-मोटे काम कर जीविका कमाते हुए वो शहर-शहर भटकते रहे। अपने जीवन के उत्तरार्ध मे बौद्ध-भिक्षु बन गये इस्सा कैलीग्राफी और ड्राइंग मे भी खासा दखल रखते थे। उनके हाइकु रोजमर्रा की छोटी-छोटी और बड़ी सामान्य सी घटनाओं से निकलते हैं और जीवन की इन साधारणताओं को गहरी दार्शनिक और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति देते हैं।

बचपन मे ही अपनी माँ को फिर अपनी प्यारी दादी को भी खो देने वाला यह बच्चा अपने अनुशासन-पसंद कठोर पिता और सौतेली माँ के बुरे बर्ताव के बीच पिसता हुआ बड़ा एकाकी होता गया। लोगों से मेलजोल के बजाय इधर-उधर जंगलों मे घूमता हुआ पेड़-पौधों-पक्षियों के संग अपना निपट अकेलापन बाँटता रहा। कविता की प्रतिभा इसी अंतस्‌ के अकेलेपन से छन-छन के बाहर आता रहा। बचपन का लिखा एक हाइकु एक बानगी है-
उतर आओ नीचे
खेलो मेरे संग
ओ अनाथ गौरैया!

बच्चों सी सरलता लिये और देशज भाषा के कलेवर मे सजी उनकी कविता उनकी मुश्किल जिंदगी का बेबाक आइना है। जापान की हाइकु की विधा की यह खासियत भी है कि उनका विषय और शैली बेहद सरल होते हुए भी वो भावों की गहराई लिये होते हैं। आमतौर पर हाइकु का मुख्य विषय प्रकृति होती है और इसी के बहाने उनमे जिंदगी के तमाम दार्शनिक पहुलुओं पर गहरी टिप्पणियाँ छुपी होती हैं। खैर हाइकु और इस्सा साहब की कुछ बातें और भी करेंगे मगर अभी उनके कुछ हाइकु के हिंदी तर्जुमे से परिचित होते हैं जो खासकर साल के बदलाव के इस मुकाम पर मौजूँ बैठते हैं।

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साल का पहला सपना
मेरे गाँव का घर
आँसुओं से धुला


(साल के पहले आँसुओं मे भरे सपने की गहरी भावुकता और घर से बिछड़ने की यातना से भरा यह हाइकु उनके अपने गाँव से 17 साल लंबी जुदाई से उपजा था जैसा कि उनकी जिंदगी के बारे मे बताने वाले कई स्रोत इशारा करते हैं।)

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लकड़ी उतराती पानी मे
कभी इधर कभी उधर
खतम होता है साल


(जिंदगी के दिशाहीन क्षणिक अस्तित्व की तरफ़ टिप्पणी करते इस हाइकु मे शायद उनके अपने ताजिंदगी भटकते रहने पर भी इशारा है)
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गढ़ रही है
साल का पहला आकाश,
चाय की भाप

(चाय यहाँ नये साल के उत्सव का भी एक पहलू है। एक मजेदार बात यह भी है कि कवि के तखल्लुस ’इस्सा’ का जापानी मतलब भी चाय-का-कप जैसा कुछ होता है)
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खतम हुआ साल
कब आयेगी मेरी बारी
ओ मंदिर की घंटी


(यहाँ मंदिर की घंटी अंतिम-संस्कार के वक्त बजायी जाने वाली घंटी है। किसी गहन दुख के वक्त लिखा गया यह हाइकु इस्सा के कष्टमय जीवन का एक इशारा भर है।)
****
उसका पति भी था संग
जब साल था नया
विधवा तितली

 
(साल ही नही बल्कि हमारे साथ के चीजें भी वक्त के साथ पुरानी पड़ती जाती हैं और हमारा साथ छोड़ देती हैं, इतनी कि फिर तकलीफ़देह अकेली जिंदगी और बरहना होती जाती है, यह इस्सा ने अपनी जिंदगी से खूब समझा था।)
***
बाड़ से बँधा
कुल तीन हाथ चौड़ा
साल का पहला आकाश

 
(शहरी गरीब इलाकों मे रहने की जगह की तंगी अपने हिस्से की जमीन ही नही आसमान को भी छोटा कर देती है, इस्सा को इसका अच्छा तजुर्बा रहा था।)
******
अपनी झोपड़ी मे तो
दोपहर से होता है शुरू
साल का पहला दिन

 
(साल के सबसे पवित्र दिन मे भी छायी सुस्ती के बहाने इस्सा अपने आलसीपन का एक भर नमूना पेश करते हैं)
***
कलाई का बना तकिया
अब खतम हो ये साल
चाहे ना हो खतम

(हमारे जैसे आलसियों के लिये एंथम सरीखा यह हाइकु इस्सा साहब की ’फक्कड़-फ़िलासफी’ के सबसे बेहतरीन नमूनों मे से एक है। गौरतलब है कि इस्सा साब का यह हाइकू उनके पीने के शौक की ओर भी इशारा करता है।)
******
जाड़े की सर्द हवाएँ
बहा कर लाती मृत्यु
और नजदीक, हर साल

 
(अपनी दादी की 33वीं पुण्यतिथि पर लिखा यह हाइकु जीवन से उनकी विरक्ति का एक उदाहरण है। गौरतलब है कि तमाम जिंदगी भर अपने निकटस्थ प्रियजनों के बिछोह को सहते रहे इस्सा की कविताओं मे मृत्यु बार-बार दस्तक देती है।)
********

कृमशः

(पहला चित्र: कोबायाशी इस्सा
दूसरा चित्र: होकुसाइ की प्रसिद्ध पेंटिंग ’गस्ट’)

पोस्ट के लिये हाइकु और इस्सा संबंधी जानकारी के लिये ’बैरंग’ निम्न स्रोतों का आभारी है:

Sunday, January 1, 2012

कविता के पन्नों मे नया साल: राबर्ट फ़िशर


यह एक मजेदार अंग्रेजी कविता है राबर्ट फ़िशर की। नेट पर ही कहीं मिली मुझे और पढ़ते हुए बड़ा मजा आया। मुख्यरूप से बाल कविता के कलेवर मे इस कविता की खास बात यह लगी कि यह किसी भी उम्र मे आपके बचपन के विस्मृत तंतुओं को स्पर्श करती है और आपकी एक सहज सी बरबस मुस्कान इस कविता का असल हासिल है। प्रस्तुत है हिंदी तर्जुमा नये साल की अशेष शुभकामनाओं के संग!


नये साल की कसमें: राबर्ट फ़िशर

ठान लिया है मैने
अब से बिल्ली को खिड़की से बाहर नही फ़ेकूँगा
बहन के बिस्तर मे मेढ़क भी नही छोड़ा करूँगा अब
और भइया के जूतों के फ़ीते भी आपस मे नही बाँधा करूँगा
पापा की टीन की छत से नही लगाऊँगा छलांग
बुआ का अगला जनमदिन याद रखूँगा अबकी बार
और हफ़्ते मे एक बार तो जरूर करूँगा अपने कमरे की सफ़ाई
मम्मी के बनाये खाने पर नाक-भौँ भी नही सिकोड़ूँगा
(उफ़्फ़! फ़िर वही बैंगन की सड़ी सी सब्जी!)
मम्मी से तमीज से पेश आऊँगा
अब अपनी नाक नही खोदूँगा, जब तक बस चलेगा
और तह कर के रखा करूँगा अपने कपड़े
कंघी भी करूँगा बालों मे
अब से मैं सीखूँगा ’प्लीज’ बोलना और ’थैंक यू’ भी
(भले ही झूठ-मूठ बोलना पड़े)
अब से चिल्लाना और इधर-उधर थूकना बन्द
और गाली देना तो एकदम बन्द
हर दिन करूँगा अपनी डायरी मे नोट
स्कूल मे सबकी मदद करने की भरसक कोशिश करूँगा
बूढ़ी औरतों को हाथ पकड़ कर सड़क पार करा दिया करूँगा
(भले ही उन्हे नही करनी हो सड़क पार)
तभी सोया करूँगा जब उल्लू सोने जाते हैं
और सुबह चिड़ियों के संग उठ जाया करूँगा
और अपने पीछे से दरवाजा बंद करना याद रखूँगा
अब टूथपेस्ट को एकदम नीचे से दबा कर निकालूँगा पेस्ट
और ऐसी जगह रहूँगा जहाँ मुसीबतें मेरे पास ही ना फटकें
अब सब कुछ नये सिरे से शुरू करूँगा
बदल दूँगा खुद को
एक अच्छा बच्चा बन कर दिखाऊँगा
और अपनी बुरी आदतें हमेशा के लिये छोड़ दूँगा
वैसे यह सब इस साल से शुरू करूँ या अगले साल से?
शुरू करूँ भी या....??

(चित्र: आभार गूगल)
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