केंचुली बदलते कैलेंडर के बहाने कविताओं के पन्ने पलटते हुए अगला नाम आता है कोबायाशी इस्सा का। जापान के अठारहवीं शताब्दी के इस अद्भुत संत कवि के हाइकु जापान के साहित्यिक इतिहास मे कुछ वैसा ही मुकाम रखते हैं जैसा हिंदुस्तान मे कबीर की साखियों का है। हाइकु के चार स्तंभों मे ’बाशो’, ’बुसान’ और ’शिकी’ के साथ ही उनका नाम भी शामिल है। अपने जीवन काल मे कोई 20000 हाइकु लिखने वाले इस्सा की लोकप्रियता वक्त से संग बढ़ती ही गयी है। नये साल के मौके पर उनके चुनिंदा हाइकु की ओर चलने से पहले उनसे कुछ और तअर्रुफ़ करते हैं।
कोबायाशी इस्सा (1763-1827) का 64 साल का जीवन लगातार उथलपुथल से भरा रहा। गरीब किसान परिवार मे पैदाइश, कम उम्र मे माँ का गुजर जाना, सौतेली माँ का सौतेला बरताव, बीवी से अनबन, कमउम्र मे बच्चों की मौत और ताजिंदगी गरीबी से जद्दोजहद ने उनकी जिंदगी के साथ कविता पर भी गहरा असर डाला। मगर उम्दा प्रतिभाओं को तमाम विपरीत हालातों मे ही पनाह मिलती है। जगह-जगह छोटे-मोटे काम कर जीविका कमाते हुए वो शहर-शहर भटकते रहे। अपने जीवन के उत्तरार्ध मे बौद्ध-भिक्षु बन गये इस्सा कैलीग्राफी और ड्राइंग मे भी खासा दखल रखते थे। उनके हाइकु रोजमर्रा की छोटी-छोटी और बड़ी सामान्य सी घटनाओं से निकलते हैं और जीवन की इन साधारणताओं को गहरी दार्शनिक और आध्यात्मिक अभिव्यक्ति देते हैं।
बचपन मे ही अपनी माँ को फिर अपनी प्यारी दादी को भी खो देने वाला यह बच्चा अपने अनुशासन-पसंद कठोर पिता और सौतेली माँ के बुरे बर्ताव के बीच पिसता हुआ बड़ा एकाकी होता गया। लोगों से मेलजोल के बजाय इधर-उधर जंगलों मे घूमता हुआ पेड़-पौधों-पक्षियों के संग अपना निपट अकेलापन बाँटता रहा। कविता की प्रतिभा इसी अंतस् के अकेलेपन से छन-छन के बाहर आता रहा। बचपन का लिखा एक हाइकु एक बानगी है-
उतर आओ नीचे
खेलो मेरे संग
ओ अनाथ गौरैया!
बच्चों सी सरलता लिये और देशज भाषा के कलेवर मे सजी उनकी कविता उनकी मुश्किल जिंदगी का बेबाक आइना है। जापान की हाइकु की विधा की यह खासियत भी है कि उनका विषय और शैली बेहद सरल होते हुए भी वो भावों की गहराई लिये होते हैं। आमतौर पर हाइकु का मुख्य विषय प्रकृति होती है और इसी के बहाने उनमे जिंदगी के तमाम दार्शनिक पहुलुओं पर गहरी टिप्पणियाँ छुपी होती हैं। खैर हाइकु और इस्सा साहब की कुछ बातें और भी करेंगे मगर अभी उनके कुछ हाइकु के हिंदी तर्जुमे से परिचित होते हैं जो खासकर साल के बदलाव के इस मुकाम पर मौजूँ बैठते हैं।
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साल का पहला सपना
मेरे गाँव का घर
आँसुओं से धुला
(साल के पहले आँसुओं मे भरे सपने की गहरी भावुकता और घर से बिछड़ने की यातना से भरा यह हाइकु उनके अपने गाँव से 17 साल लंबी जुदाई से उपजा था जैसा कि उनकी जिंदगी के बारे मे बताने वाले कई स्रोत इशारा करते हैं।)
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लकड़ी उतराती पानी मे
कभी इधर कभी उधर
खतम होता है साल
(जिंदगी के दिशाहीन क्षणिक अस्तित्व की तरफ़ टिप्पणी करते इस हाइकु मे शायद उनके अपने ताजिंदगी भटकते रहने पर भी इशारा है)
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गढ़ रही है
साल का पहला आकाश,
चाय की भाप
(चाय यहाँ नये साल के उत्सव का भी एक पहलू है। एक मजेदार बात यह भी है कि कवि के तखल्लुस ’इस्सा’ का जापानी मतलब भी चाय-का-कप जैसा कुछ होता है)
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खतम हुआ साल
कब आयेगी मेरी बारी
ओ मंदिर की घंटी
(यहाँ मंदिर की घंटी अंतिम-संस्कार के वक्त बजायी जाने वाली घंटी है। किसी गहन दुख के वक्त लिखा गया यह हाइकु इस्सा के कष्टमय जीवन का एक इशारा भर है।)
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उसका पति भी था संग
जब साल था नया
विधवा तितली
(साल ही नही बल्कि हमारे साथ के चीजें भी वक्त के साथ पुरानी पड़ती जाती हैं और हमारा साथ छोड़ देती हैं, इतनी कि फिर तकलीफ़देह अकेली जिंदगी और बरहना होती जाती है, यह इस्सा ने अपनी जिंदगी से खूब समझा था।)
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बाड़ से बँधा
कुल तीन हाथ चौड़ा
साल का पहला आकाश
(शहरी गरीब इलाकों मे रहने की जगह की तंगी अपने हिस्से की जमीन ही नही आसमान को भी छोटा कर देती है, इस्सा को इसका अच्छा तजुर्बा रहा था।)
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अपनी झोपड़ी मे तो
दोपहर से होता है शुरू
साल का पहला दिन
(साल के सबसे पवित्र दिन मे भी छायी सुस्ती के बहाने इस्सा अपने आलसीपन का एक भर नमूना पेश करते हैं)
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कलाई का बना तकिया
अब खतम हो ये साल
चाहे ना हो खतम
(हमारे जैसे आलसियों के लिये एंथम सरीखा यह हाइकु इस्सा साहब की ’फक्कड़-फ़िलासफी’ के सबसे बेहतरीन नमूनों मे से एक है। गौरतलब है कि इस्सा साब का यह हाइकू उनके पीने के शौक की ओर भी इशारा करता है।)
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जाड़े की सर्द हवाएँ
बहा कर लाती मृत्यु
और नजदीक, हर साल
(अपनी दादी की 33वीं पुण्यतिथि पर लिखा यह हाइकु जीवन से उनकी विरक्ति का एक उदाहरण है। गौरतलब है कि तमाम जिंदगी भर अपने निकटस्थ प्रियजनों के बिछोह को सहते रहे इस्सा की कविताओं मे मृत्यु बार-बार दस्तक देती है।)
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कृमशः
(पहला चित्र: कोबायाशी इस्सा
दूसरा चित्र: होकुसाइ की प्रसिद्ध पेंटिंग ’गस्ट’)
पोस्ट के लिये हाइकु और इस्सा संबंधी जानकारी के लिये ’बैरंग’ निम्न स्रोतों का आभारी है:
:-)
ReplyDelete'मगर उम्दा प्रतिभाओं को तमाम विपरीत हालातों मे ही पनाह मिलती है।'
ReplyDeleteबिलकुल सूक्तिवाक्य सी बात है यह तो!
न्दर संग्रहणीय आलेख!
आभार!
पढ़कर लगा...
ReplyDeleteदर्द के शब्द बीज
छींट कर चले गये
कोबायाशी इस्सा।
बहुत अच्छी पोस्ट …
ReplyDeleteअच्छा लगा कोबायाशी इस्सा के बारे में पढ़ कर.
ReplyDeleteकुछ उदास सा साधुवाद.
थोड़ा सा साल .अच्छ है..बिल्कुल थोड़ा...बस बस बस....
ReplyDeleteखूब सुन्दर....
ReplyDeletebahut achhi jaankari..sundar Post
ReplyDeleteइतने गहराई वाले हाइकु पढ़वाने के लिए आभार...
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