Wednesday, January 4, 2012

कविता के पन्नों मे नया साल: कोबायाशी इस्सा-2

(पिछली पोस्ट से जारी)
     कोबायाशी इस्सा साहब की जो बात उनको दूसरे समकालीन हाइकू के महारथियों से अलग करती थी, वह थी उनकी कविता की बच्चों जैसी अद्भुत सरलता और साधारणता। गहरी दार्शनिक गुत्थियों मे गंभीरता के साथ उलझने की बजाय वो ज्यादातर अपने आस-पास की चीजों को कविता का विषय बनाते थे और उनके तमाम हाइकू उनके इसी खिलंदड़ेपन और ह्यूमर की बानगी नजर आते हैं। कोई भी चीज उनकी कविता के परिधि से परे नही थी और उनकी उपहासात्मक नजर विषयों मे पवित्रता का फ़र्क नही देखती थी। लगातार संघर्षों से जूझते उनके जीवन ने अपने दुखों का भी मजाक बनाने की कला विकसित कर ली थी। वो खुद ही कविता के बहाने अपनी मुफ़लिसी, बीमारी, पियक्कड़ी, आलसीपन और शक्लो-सूरत का मजाक उडाते ही थे बल्कि उनकी मजे लेने की शैली चपेट मे अक्सर देवता और धार्मिक व्यक्ति भी आ जाते थे। मगर जिंदगी के प्रति इतना उपहासात्मक रवैया रखने के बावजूद उनकी तमाम उम्र विषमताओं से जूझते हुए ही बीती।
    खुद को ’शिनानो-प्रांत का भिक्षुक’ कहलाना पसंद करने वाले इस्सा की कविता मे अतिशय विद्वत्ता, विशिष्टता और पवित्रता जैसी ’असाधारणताओं’ के प्रति निषेध-भाव ही देखने को मिलता है। अपनी जिंदगी की तरह वो अपनी कविता को भी आम लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी से करीब और और फलतः जमीन से जुड़ा हुआ बनाये रखते हैं। तमाम ’काव्योचित’ विषयों (तब की जापानी कविता जिन विषयों के इर्द-गिर्द घूमती थी) के प्रति नकार का भाव ही था कि वो बेहद उपेक्षणीय और साधारण सी चीजों को अपनी कविता का केंद्र बनाते थे। पशु-पक्षी और पेड़-पौधे भी उनकी कविता मे बेहद प्रभावी और सजीव रूप से उपस्थित होते थे। एक स्रोत के मुताबिक अपने जीवनकाल मे उन्होने 54 हाइकु घोंघे पर, 200 मेढक पर, 230 जुगनू पर, 150 मच्छर पर, 90 मक्खियों पर लिख डाले। कविता मे साधारणता और मानवीयता का यही आग्रह उन्हे हाइकु के दूसरे मास्टरों से अलग खड़ा करता है।
  खैर, यहाँ इस्सा के नये साल पर कुछ और उम्दा हाइकु का हिंदी तर्जुमा पेशे-खिदमत है।

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गोदाम के पिछवाड़े
तिरछा चमकता है
साल का पहला सूरज


 
(अपने जीवन के उत्तरार्ध मे उनके गाँव मे आग लग जाने से उनका घर साजो-सामान सहित जल कर खाक हो गया था। फलतः जिंदगी के बाकी तमाम दिन उन्हे जरा सी गोदाम मे रह कर गुजारने पड़े थी, जहाँ कि सूरज की रोशनी भी थोड़ी सी ही आती थी। यह हाइकु संभवतः उन्होने इसी परेशानी पर तंज कसते हुए लिखा था।)
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थोक मे अभिनंदन करता
साल की पहली बारिश का
टपकता हुआ घर

 
(अपने घर की दुर्दशा के बहाने वो अपनी आर्थिक खस्ताहाली पर भी व्यंग्य करने से नही चूकते हैं।)
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खूब है ये भी साल
भिनभिनाती आपस मे
द्वार पर मक्खियाँ


(इस्सा के हाइकु मे पशुओं-पौधों-कीड़ों की उपस्थिति बड़ी मानवीय और मूर्त होती थी, वहीं अपने अहसास उजागर करने के रूपक भी।)
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दीवार मे छेंद
कितना सुंदर तो है
मेरे साल का पहला आकाश


(यह इस्सा के तीखे हास्यबोध और जिंदगी के प्रति फ़क्कडपन का बेहतरीन उदाहरण है, जहाँ टूटे घर मे भी वो ऐसी सकारात्मकता खोज लेते हैं कि जिंदगी से कोई शिकायत न हो।)
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झोपड़ी के मच्छर
इस कम्बख्त साल भी
उड़ायेंगे दावत


(यह हाइकु भी इस्सा के खुद का मजाक उड़ाने की आदत की बानगी है। अपनी कठिन जिंदगी और रहने की दिक्कतों के बहाने मच्छरों की लाटरी खुल जाने की बात करना उनके स्वभाव के खिलंदड़ेपन की निशानी ही होगी।)
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निकल आये पंख
उड़ गया मेरा रुपिया
खतम हुआ साल


(साल के आखिर मे सारा उधार चुकता करने मे गाँठ के पैसे खतम हो जाने पर इस्सा को अचरज होता है कि इतनी मेहनत से कमाया पैसा कितनी जल्दी ’उड़’ गया, कि नये साल का स्वागत करने के लिये उनके पास धेला भी नही बचा।)
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नही खड़ी कर पाया हवेली
जिसने नही चखी शराब
गम मे खतम हुआ साल


(अपनी पियक्कड़ी का बचाव करते हुए इस्सा मजाक करते हैं कि अमीर बनने के लिये ’पीना’ भी जरूरी शर्त है, मगर बहाने से इशारा भी करते हैं कि दारू नही मिलने की वजह से उनका साल द्खद तरीके से खतम हो रहा है।)
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साल का अंत
मेरे मृत्यु-ग्रह की घंटी
भी बजती सी

 
(ताजिंदगी अपने प्रियजनों (पहले माँ, दादी, पिता फिर बीवी और बच्चे) की मौत से जूझते इस्सा की कविता मे मृत्यु बड़ी सहजता मगर अपरिहार्यता के संग नजर आती है।)
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एक नया साल
वही पुरानी बकवास
बकवास के ढेर पर इकट्ठी होती


(अपनी आर्थिक मुश्किलों से जूझते इस्सा कुढ़ते भी हैं कि साल बदलने के बावजूद परेशानियाँ यथावत रहती हैं, संग ही जिंदगी की एकरसता पर कटाक्ष भी करते हैं।)
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एक और नया साल
जब तलक नही घिसता है
बारिश रोकने का पत्थर


(यहाँ पर इस्सा अपने नये घर की खुशी ही व्यक्त करना चाहते हैं कि जब तक उनका घर बारिश रोकने मे सक्षम है उन्हे वक्त बीतने की कोई फ़िकर नही है।)
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बुद्ध पर है मुझे भरोसा
अब अच्छा हो या बुरा
जाते साल को विदा


(बौद्ध-भिक्षु रहे इस्सा की कविता पर बौद्ध-दर्शन का असर साफ़ दिखता है. जो शायद उनकी जिंदगी के प्रति धैर्यपूर्ण रवैये की भी वजह रही है।)


 (चित्र: उन्नीसवीं शताब्दी के प्रसिद्द जापानी पेंटर उतागावा हिरोशिगे की मशहूर कलाकृति ’फ़ुजी और अश्तका पहाड़ पर बर्फ़बारी के बाद मौसम’. साभार-गूगल)

4 comments:

  1. यही तो, हेट-ट्रिक करने वाला था मैं. कर ही दी देवेन्द्र जी ने. लक्की है ये. :-)

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  2. तीन हाइकु पसंद आये
    पहला
    गोदाम के पिछवाड़े
    तिरछा चमकता है
    साल का पहला सूरज
    ये वाला
    एक नया साल
    वही पुरानी बकवास
    बकवास के ढेर पर इकट्ठी होती

    ओर ये
    एक और नया साल
    जब तलक नही घिसता है
    बारिश रोकने का पत्थर
    बाकी तकरीबन एक जैसे लगते है आपस में मिलते जुलते ....

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  3. microscope se khangaal daali apni muflise.kavi ki har saans mai kavita.

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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