Friday, June 7, 2013

तोहे पिया मिलेंगे (राँझना म्युज़िक रिव्यू -1)


इरशाद कामिल की एक विशेषता है कि वो पुराने लिरिक्स राईटर को भी पूरा मौका देते आये हैं। मोस्ट ऑव द टाईम विदाउट एनी क्रेडिट्स। न न वो म्युज़िक डाईरेक्टर नहीं लिरिक्स राईटर हैं। म्युज़िक डाइरेक्टर तो ऐ. आर. रहमान हैं। वो तो किसी को कोई मौका ही नहीं देते। छाए रहते हैं ज्यादातर पूरे गाने में। 'तोहे पिया मिलेंगे' में भी छाए हैं। गाना सूफ़ी की तरह प्रमोट किया जाएगा पर है कव्वाली सा। तोहे पिया मिलेंगे एक गीता दत्त ने भी गाया है। पर यदि पूरा गाना इतना बढ़िया लिख पाए कोई तो उसे पहली लाइन कॉपी करने की इजाज़त दी जा सकती है। लगता है बचपन में काफ़ी तरही मुशायरों में भाग लिया था इरशाद ने। अज्ज दिन चढिया, अलिफ़ अल्लाह चम्बे दी बूटी और तुम्हीं हो बंधु आर टू नेम फ्यू ऑव देम।
थीम वाइज़ कुछ कुछ फाया कुन का नोस्टेल्जिया देता है। ऐ. आर. रहमान इतने सेल्फ ऑबसेस्ड हैं कि कोपी करने के लिए भी ख़ुद को सेलेक्ट करते हैं। जैसे गुलज़ार सा'ब। इन लोगों को प्रीतम या अन्नू मलिक की तरह फ़िलेनथ्रोपि की नॉलेज नहीं है।
जब सरगम छेड़ो तो गाना दौड़ता है। और फिर बोल गाओ तो बेतकल्लुफी के साथ आराम करता है। तोहे पिया मिलेंगे का लूप होने के कारण जुबां में आसानी से चढ़ सकता है। मेलोडी बिटज़ एंड पार्ट में है पर टेक्निकली बहुत स्ट्रोंग है। इरशाद प्रेम विरह या फिलोसफी से ज्यादा मिस्टिक में अपने ट्रू कलर में दीखते हैं। गोया कबीर या बुल्लेशाह का एक्सटेनशन। इस गाने का भी यही स्ट्रोंग पॉइंट है...
"पाके खोना, खोके पाना होता आया रे।"
"तेरे अंदर एक समन्दर, क्यूँ ढूंढे तुपके तुपके।"
"जो है देखा वही है देखा तो क्या देखा है।"
बाकी गाने भी अज्ञात को छूने का प्रयास करते हैं पर हम उनकी अलग अलग बात करेंगे। पिया मिलेंगे निनी सा सा से शुरू होकर अलाप में खत्म होता है। सुखविंदर के साथ ऐ. आर. का लम्बा रिश्ता है। छइयां छइयां सरिखे गाने बार बार नहीं बनते पर बॉन्डिंग बन जाती है।
गाने को मेरी तरफ से पांच में से साढ़े चार मार्क्स।
इरशाद पंजाब से आते हैं और उर्दू से पी. एच. डी. की है। इसलिए उनके लेखन में हिंदी उर्दू पंजाबी और अंग्रेजी ऐवें ही आती जाती रहती हैं। साथ में फरीद, बुल्ले, बटालवी और रूमी से उनका जुड़ाव तो चमेली और लव आज कल से ही पता लगता आया है। पर कोई एक दूसरे को इंटरसैक्ट नहीं करती हैं न भाषाएँ न पुराने सूफ़ी। इसे कहते हैं ब्लेंडिंग जो खिचड़ी का परिपक्व रूप भी कहलाया जा सकता है। जैसे "क्यूँ ढूंढे तुपके तुपके","रंग दे हवावाँ वि घोड़ी पे चढ़े","तू मन शुदी"।
एल्बम ऐ. आर. रहमान का सॉरी है 'जब तक है जान' के लिए। ऐसा नहीं है कि लेजेंड गलतियाँ नहीं करते पर वो कम बैक करना जानते हैं।
एल्बम दिल से या रॉकस्टार की ऊँचाई छू सकता है। रहमान इरशाद के लिए वो होते दीखते हैं जो बर्मन गुलज़ार के लिए थे।
यू ट्यूब में इरोज़ इंटरनेशनल के ऑफिशियल प्रोमोज हैं। पर अभी शायद इस गाने का प्रोमो नहीं आया है।
"अक्ल के पर्दे पीछे कर दे घूंघट के पट खोल रे। तोहे पिया मिलेंगे।"
PS: हो सके तो ओरिजनल एल्बम खरीदिएगा। अगर आप इंटरनेट एफोर्ड करके रिव्यू पढ़ सकते हैं तो एल्बम भी एफोर्ड कर ही सकते हैं। जिसने पैसे लगाए हों ऐसे मास्टरपीस के निर्माण में उनका पैसा वापिस आना जरूरी है। और वैसे भी सी.डी. में गाने सुनने का अनुभव कुछ और ही है। आपका कलेक्शन भी बनता है और सी. डी. के गाने में डाटा कॉमपैक्ट नहीं होता तो हर आवाज़ क्रिस्टल क्लियर होती है।
मज़े भी करो तो डूबकर करो न यार। सतही मज़ा भी कोई मज़ा है।
TBC...

1 comment:

  1. शुक्र है कि लिंक पर क्लिक किया और अब तक पेज़ नाॅट फाऊंड नहीं बता रहा है।

    बेशक इरशाद एक सफल गीतकार हैं, उनके गीत लेखन की जड़ में आध्यात्मिकता भी है लेकिन मुझे नहीं लगता कि उनका सर्वश्रेष्ठ अब तक आ सका है। कहीं उनका इंटरव्यू पढ़ा था तो संतुष्ट इस बात से हुआ कि चलो पसंद अच्छी है।

    इंडस्ट्री में अंतिम क्लासिकल गीतकार मुझे सईद कादरी लगे हैं जिनको सुना है।

    रहिए जनाब ! डूब कर मज़े करने के लिए ही रहा कीजै।

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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