Thursday, June 16, 2011

खूब पहचान लो असरार हूँ मैं...





डाकिए की ओर से: सुबह मजाज़ की सोहबत में गुज़री, तो हैंगओवर सा हो गया, पर ये नशा ज़रूरी था। अभी चिठ्ठी डालने निकला तो सोचा क्यों न यही खत आप तक भी पहुंचाया जाए। वैसे भी एक नज़र फेसबुक पर डाली तो लोहा गर्म लगा। कुरजां (जयपुर से नई मैगज़ीन) में भी अलसुबह इनके बारे में विस्तार से जाना। लेकिन फिलहाल यहां एक छोटा सा पोस्टकार्ड डाल रहा हूं। खत और भी आएंगे और तारकोवोस्की की डायरी भी चलती रहेगी, मगर फिलहाल यह फुहार...
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मजाज़ लखनवी हकीकत में उस असरार का नाम है जिसे जमाना उसकी मौत के बाद भी समझने की कोशिश में मुब्तला है। उर्दू के तमाम शायरों में अगर सबसे शायराना जिंदगी किसी की रही तो ये मजाज़ ही थे। उर्दू अदब की दुनिया में ये किस्से पहले ही अमर हो चुके हैं कि एक ज़माने में कुंवारी लड़कियां अपने बेटों के नाम मजाज़ के नाम पर रखने की कसमें खातीं थीं। मजाज़ के लिए लड़कियों में लाॅटरी निकाली जाती थीं और उनकी नज्में गल्र्स होस्टल के तकियों में दबी मिलती थीं लेकिन मजाज़ ताजिंदगी जिन्स-ए-उल्फत (प्यार) के तलबगार ही रहे। एक दफा अलीगढ़ विश्वविद्यालय में ही इस्मत चुगताई ने उनसे कहा कि लड़कियां मजाज़ से मुहब्बत करती हैं, इस पर मजाज़ ने तपाक से कहा - ‘और शादी पैसे वालों से कर लेती हैं‘।

जिं़दगी में सब कुछ बदलता रहा लेकिन हाजि़रजवाबी का ये असासा हर दौर में मजाज़ के साथ रहा। जब इस्मत चुगताई ने उनसे पूछा कि मजाज़ तुम्हारी जिंदगी को बर्बाद लड़की ने किया या शराब ने तो मजाज़ ने कहा कि मैंने दोनों को बराबर का हक दिया है। मजाज़ के ऐसे कई लतीफे जिन्हें बाद में मजाज़ीफे कहा जाने लगा, आज भी लखनऊ की आबो-हवा में बिखरे पड़े हैं। लेकिन इनके पीछे की तल्खी यह है कि इन्हें कहने वाला पूरी जिंदगी बेहद दुखी रहा। 

उर्दू के जाॅन कीट्स कहे जाने वाले असराल उल हक मजाज़ की पैदाइश 1911 में रूदौली कस्बे में हुई थी। मजाज़ की शायरी को मुकाम अलीगढ़ मुसलिम विश्वविद्यालय में मिला। यहां उस दौर में मशहूर शायरों की एक पूरी जमात थी जिनमें मोईन अहसन जज्बी, अली सरदार जाफरी और जांनिसार अख्तर भी शमिल थे। लेकिन इन सबमें जो नाम सबसे ज्यादा मकबूल हुआ वह मजाज़ लखनवी का ही था। अलीगढ़ मुसमिल यूनिवर्सिटी का तराना भी मजाज़ का ही लिखा हुआ है। मजाज़ प्रगतिशीलता के सारे तत्वों के स्वाभाविक समर्थक थे। असल में नाजुक तबीयत वाले मजाज़ हर उस व्यक्ति से नजदीकी महसूस करते थे जिसे उसका बुनियादी हक नहीं मिला। यही निकटता उन्हें प्रगतिशीलता की राह पर ले गई। स्त्री मुक्ति और नारीवाद के जिस आंदोलन की बात आज होती है उसे मजाज़ 30 के दशक में ही अपनी नज्मों के ज़रिए कह रहे थे। कम लोग जानते हैं कि मजाज़ साहब के पुश्तैनी घर में आज लड़कियों का स्कूल चल रहा है। 

मजाज़ तरक्कीपसंद शायरों में होते हुए भी अपनी रूमानियत के चलते अलग ही नज़र आते हैं। फैज अहमद फैज उनके बारे में लिखते हैं - मजाज़ की इंकलाबियत आम इंकलाबी शायरों से अलग है। आम इंकलाबी शायर इंकलाब को लेकर गरजते हैं, सीना कूटते हैं इंकलाब के मुताल्लिक गा नहीं सकते। वो इंकलाब की भीषणता को देखते हैं उसके हुस्न को नहीं पहचानते। 

मजाज़ की शायरी अल्फाज की कारीगरी से नहीं बनती, वहां भावों की सहज आमद है। इसलिए रूमानी शायरी में तो वो कीट्स का दर्जा रखते ही हैं। तरक्कीपसंद शायरी में ज़रा भी बनावटी नहीं लगते। मजाज़ की शायरी की गहरी समझ रखने वाले मोहसिन जमाल कहते हैं - अगर मजाज़ को उतनी लंबी उम्र मिली होती जितनी उनके साथ के बाकी शायरों को मिली तो इसमें कोई शक नहीं कि मजाज़ का नाम ग़ालिब इकबाल के बाद मकाम पाता। मजाज़ को याद करते हुए उनकी भतीजी सहबा अली कहती हैं - मजाज़ साहब की सरलता का अगर लोगों ने गलत फायदा न उठाया होता तो हम इतनी जल्दी उस बड़े शायर से महरूम न होते। जोश मलीहाबादी ने एक बार मजाज़ को सामने घड़ी रखकर पीने की सलाह दी तो मजाज़ ने कहा - आप घड़ी रख के पीते हैं, मैं घड़ा रख के पीता हूं। इस बेतहाशा शराबनोशी ने मजाज़ को मौत के मुहाने पर ला खड़ा किया। कई बार वो पागलपन के दौरे के शिकार हो चुके थे। 

मजाज़ की मौत के बाद उन पर जितना लिखा पढ़ा गया उतना किसी और शायर पर नहीं लिखा गया। 2006 में भारत सरकार ने उनकी याद में एक डाक टिकट भी ज़ारी किया। लखनऊ में मजाज़ की खस्ताहाल कब्र पर एक शेर लिखा है ‘‘अब इसके बाद सुबह है और सुबह-ए-नौ मजाज़, हम पर है खत्म शामे गरीबाने लखनऊ...''

 साभार: तहलका, उत्तराखंड संस्करण, फरवरी, 2011

10 comments:

  1. थोड़ी और जानकारी यहाँ

    http://ek-shaam-mere-naam.blogspot.com/2006/12/blog-post_06.html

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  2. saagar ...tumhaare chaltebahut kuchh badhiyaa padhne ko mil jaata hai

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  3. इसे पेश करने का आभार मेरे भाई...हम किस-किस को भुला बैठे हैं...

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  4. कुछ हैंगओवर अच्छे होते हैं :)
    नशा तारी रहे सो कुछ और लिंक थमा देती हूँ -

    http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2005/12/051204_majaz_anniversary.shtml

    http://www.bbc.co.uk/hindi/entertainment/story/2005/12/051204_majaz_narang.shtml

    http://www.bbc.co.uk/hindi/specials/1029_majaz_poet/

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  5. @ ऋचा जी,
    बहुत शुक्रिया, तीनो लिंक एक्सटेंशन हैं और शानदार हैं खासकर उनकी लिखी डायरी वाला तीसरा लिंक

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  6. ऋचा वाले लिंकों से पहले भी गुजरा हूँ.....तुम्हारी चिठ्ठी से शराब की बू आती है ....

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  7. मजाज की यह फुहार भीगो गई।

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  8. सागर भाई.... मजाज़ के और करीब लाने का शुक्रिया दोस्त

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  9. ऋचा जी ने पोस्ट में जान डाल दिया है।
    ...आभार आपका।

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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