Sunday, December 23, 2012

शिव कुमार बटालवी की एक कविता 
वह भी शहर से आ रही थी,
मैं भी शहर से आ रहा था..
इक्का चलता जा रहा था...
दूर पश्चिम की ख़ुश्क शाख पर..
सूरज का फूल मुरझा रहा था..
मेरे और उसके बीच में फासले थे..
फिर भी मुझे सेक उसका आ रहा था..
इक्के वाला धीरे-धीरे गा रहा था..
इक्का चलता आ रहा था..

दोनों किनारे सांवली सी सडक के..
उसके होंटों की तरह थे कांपते..
हवा का चिमटा सा जैसे बज रहा..
पेड़ों के पत्ते भी थे खनकते..
दूर एक एक शाम का फीका सा तारा..
गगन की गाल पर मुस्करा रहा था..
एक नन्हें से गुलाबी मुख पर..
काले तिल के जैसे नजर आ रहा था..
उसके और मेरे बीच फासला..
हमारी मंज़िल  सा ही घटता जा रहा था..
इक्के वाला धीरे-धीरे गा रहा था..
इक्का चलता आ रहा था..

दूर उस धुंए के जंगल के पार..
जा रही थी पंछिओं की एक डार..
मेरा जी किया मैं उस डार को..
ऊँचे से ये कहूँ आवाज़ मार..
साथ अपने ले चलो हमे भी यार..
दूर इस दुनिया के किसी और पार..
दे हमे उस ज़जीरे पर उतार..
जहाँ सके रात आज ये गुज़ार..
स्याह अँधेरा स्याह एक नागिन के जैसा..
मेरी और सरकता आ रहा था..
मेरा हाथ उसके हाथ साथ..
जाने कितनी देर से टकरा रहा था..
इक्के वाला धीरे-धीरे गा रहा था..
इक्का चलता आ रहा था..

आ रही थी तेज कदमों की आवाज़..
ताल में थे खनकते इक्के के साज़..
साज़ में से निकलती इक यूँ आवाज़..
बिजली के खम्बों में जिस तरह..
बचपन में टिका के कान सुनते आवाज़..
समझते कि उड़ रहे है लड़ाई में जहाज..
जगत के पापों से चिढ़ कर समझते..
हो गये या सारे देवता नराज़..
आ रही थी तेज कदमों की आवाज़..
ताल में थे खनकते इक्के के साज़..
उसके गाँव की ऊँची मस्जिद का मीनार..
उस अँधेरे में भी नज़र था आ रहा..
वह और उसके साथ उसका हाथ भी..
मेरे हाथों से निकलता जा रहा था..
इक्के वाला जाने क्यों विलाप सा कुछ गा रहा था..

बेरहम घोड़े को एक जल्लाद जैसे..
ऊँची-ऊँची तेज़ चाबुक मारता था..
सारा इक्का अब किसी मर चुके..
जानवर का पिंजर सा नज़र आ रहा था..
दीयों की रोशनी में मेरा घर..
दूर से एक कब्रिस्तान नज़र आ रहा था..
दिल मेरा हर घड़ी पीछे को उड़ता जा रहा था..
इक्के वाला जाने क्यों विलाप सा कुछ गा रहा था..
बेरहम घोड़े को एक जल्लाद जैसे..
ऊँची-ऊँची तेज़ चाबुक मारता था
इक्का चलता आ रहा था..
इक्का चलता आ रहा था..


http://www.youtube.com/watch?v=8up7TGVZHZo 

Thursday, November 1, 2012

तुग़लक़ : एक रिपोर्ट


दिनांक 28 अक्टूबर को फिरोजशाह कोटला किले में गिरीश कर्नाड का लिखा नाटक तुग़लक़ का मंचन पूरे धूमधाम से हुआ। मैंने इसका फस्ट डे फस्ट शो देखा। प्रकाश व्यवस्था और मंच सज्जा देखकर ही लगा जैसे इसे राज्य सरकार का समर्थन हासिल है। राज्य सरकार की मंशा थी कि पिछले साल संपन्न हुए अंधा युग की तर्ज पर तुगलक को भी पेश किया जाए। इस प्रसिद्ध नाटक का मंचन पिछले चालीस साल से हो रहा है। इस बार इसका निर्देशन भानु भारती ने किया। उम्दा कलाकारों की ज़मान ने अपने अभिनय से समां बांध दिया। तुग़लक़ के रूप में यशपाल शर्मा ने बेहद उम्दा अदाकारी की, हालांकि पोस्टर पर मैं उन्हें पहचान नहीं पाया था। कुल चार स्टेज बांधे गए थे जिनमें पहला वज़ीरों की आम गोष्ठी के लिए था। दूसरा मंच राजमहल का था जहां तुगलक अपने राजनीतिक निर्णयों के साथ साथ खुद को ज्यादा व्यक्त कर पाता था। यहीं से पता लगता था कि तुगलक अपनी रियाया को लेकर बहुत ही संवेदनशील था और उनसे बहुत प्यार करता था। वो भावुक भी था और कविता न करते हुए कवि की तरह सपने देखता था। तीसरा मंच दौलताबाद के राजमहल के गुंबद का था जहां वो नींद न आने की हालत में टहलता था और चैथा आम जनता का था। एक पांचवां छोटा स्टेज भी था जो रास्ते का सूचक था। 

यशपाल शर्मा जहां अपनी बेहतरीन संवाद अदायगी से छाए रहे वहीं उनकी सौतेली वालिदा बनीं हिमानी शिवपुरी अपनी मौजूदगी से छाई रही। नाटक खत्म होने के बाद वहीं हिरोईन थी। दर्शकों ने जम कर उनके साथ तस्वीरें खिंचवाईं।

बात पहले यशपाल शर्मा की। उन्होंने मेरा ध्यान सबसे पहले फिल्म गंगाजल से खींचा था। फिर वेलकम टू सज्जनपुर में उनके बेजोड़ अभिनय से मैं उनका प्रशंसक हो गया और अभी हाल ही में देखी गैंग्स आॅफ वासेपुर में आॅर्केस्ट्रा गायक बन जब वो पूरे इत्मीनान से अपनी उंगलियों पर पांच गिनते हैं तो मन में बिना कोई संवाद के बस जाते हैं। तुग़लक़ में उन्होंने कई जगह साबित किया है कि वो एक उम्दा कलाकार हैं। बहुत ही बुलंद आवाज़ में उन्होंने उर्दू में अपना संवाद कहा है। यह सोच कर मैं बहुत देर गुम रहा कि इस कदर इतने लंबे लंबे कठिन उर्दू अल्फाजों की संवाद अदायगी में कितनी मेहनत रही होगी और इसे आंखों के सामने अभिनय के साथ पेश करना कितना महान काम! उनका उच्चारण भी शानदार रहा। संवाद नाटक के जान होते हैं। और इस नाटक के उर्दू संवाद ध्यान खींच रहे थे। खैर बाद में जब नाटक का ब्रोशर हाथ आया तो उर्दू डिक्टेशन और उच्चारण गुरू में शीन काफ निज़ाम का नाम देखकर तसल्ली मिली। 

यशपाल शर्मा के अभिनय इतनी मांजी हुई है कि वे बोलते बोलते अगर अपना संवाद भूल भी जाएं तो उसे अपनी आवाज़ के उतार चढ़ाव बखूबी संभाल सकते हैं।

अब बात हिमानी शिवपुरी की। उनकी आवाज़ का स्वर ऊंचा है। राजवेश में वे खूबसूरत भी बहुत लगीं। खास कर पल्लू लेने का तरीका और आधे माथे पर मोतियों का अनारकली स्टाइल फिरन। 

तीसरा पात्र जिसने समां बांधा वो थोड़ी देर के लिए ही था। तल्खी से बोलने वाला एक निडर धार्मिक नेता। महज़ एक सीन में ही तुगलक़ से भिड़ने वाला और इस्लाम की व्याख्या करता, जादुई अल्फाज़ परोसता कलाकार। 
नाटक में ताली बजाने का मजबूर करते कई दृश्य थे। हंसने के सीन भी थे। कुछ संवाद जो याद रह गए उनमें यह था -
जब तुग़लक़ पर हमले की साजिश हो रही होती है तो एक कहता है - नमाज़ अता करते वक्त किसी पर हमला करना गुनाह है। 
दूसराः कोई बात नहीं, इस नमाज़ में उसका सर कलम कर देंगे और अगली नमाज़ में खुदा से माफी मांग लेंगें।
साजिश का पर्दाफाश होने पर तुग़लक़ अपनी भर्राई आवाज़ में खीझ कर कहता है- 
इन इबादतों में भी अब साजिश की बू आती है। मुनादी कर दो शहर में कि आज से कोई इबादत नहीं करेगा। हम इबादत के लायक नहीं रहे।
शहर में लूट खसोट और आम जनता की बदहाली पर एक धोबी कहता है - मज़ा तो तब है जो खूले आम लूट करो और लोग कहें हकूमत है। 

तुग़लक़ की नीतियां गलत नहीं थीं। उसकी गलती या यों कहें कि उसकी नीतियों असफल इसलिए रहीं कि बस वो वक्त से बहुत आगे की थीं। तांबे के सिक्के चलाना, मुसाफिरों को बेहतरीन सहूलियत देना, राजधानी को दिल्ली से दौलताबाद ले जाना। सारी नीतियां सही थीं और करेंसी रिफाॅर्म तो आज हो ही रहा है। बस वो वक्त माकूल नहीं था। इसलिए वो पगला शासक के नाम से मशहूर हो गया। वो आला दर्जे का ज्ञानी भी था। अंदर की लड़ाई उसे परेशान करती थी जो उसके बेचैन होने का सबब था। उसे रातों को नींद नहीं आती थी। वो रियाया को अपना मुस्तकबिल मानता था। राजा से ज्यादा ऊंचा दर्जा देता था। सियासत को धर्म से अलग रखने का हिमायती था। प्रजा को लेकर वो एक विश्व कवि जैसा ख्यालात रखता था।

नाटक और उसके संवाद यहीं से आम जन मानस से जुड़ जाते हैं जब उनमें ये उधेड़बुन होता है। परिस्थितियां आज भी वहीं हैं। लूट हो रही है और सरकार कहती है लोकतंत्र है। 

कुछ सीन कमाल थे मसलन दिल्ली से दौलताबाद का विस्थापन। पीली रोशनी में मंच के पीछे से चैथे पर सीढि़यों से उतरना एक बेहद कारूणिक प्रसंग था। आज जनता का हाथों में मुड़े तुड़े तसले को ले यह गुहार करना कि राजा - हमें खाने को दो, अंदर से व्यथित करने वाला दृश्य था। 

प्रकाश सज्जा ने थियेटर को जादूई रूप दे दिया था। विभिन्न कोणों से किरदारों पर पड़ता प्रकाश कहानी के साथ साथ पात्रों के मनोभावों को भी बखूबी उकेरता था। जहां मौन भी बोलने लगता है। सभी पात्रों की बाॅडी लैंग्वेज भी अच्छी थी और महीनों की रिहर्सल साफ नज़र आई। फिर भी मुझे तुग़लक़ की ही बाॅडी लैंग्वेज़ में बहुत थोड़ी सी कसर नज़र आई लेकिन यह पूरी तरह नज़रअंदाज़ करने वाली बात है क्योंकि इतने लंबे लंबे संवाद में यह हो जाता है।

थियेटर देखने शीला दीक्षित भी आई थीं और जैसा कि सियासतदानों पर सूट करता है कि वो अपनी उपस्थिति ही दर्ज करवाएंगे वो भी तीन सीन बाद चली गईं। कहते हैं इस नाटक पर सवा तीन करोड़ खर्च आए। कुछ संस्था खफा हैं। वज़ह जायज हैं या नाजायज इसकी तह में नहीं जाना चाहता। हमें ऐसे नाटकों की ज़रूरत है जो 1500 सीटों के बाद भी 800 लोगों को खड़ा कर अपने में बांधे रहे। मैं जितना समझ पा रहा हूं उतना लिख रहा हूं। नाटक और कला पर केंद्रित बातें। 

हमारे देश में नाटकों का भविष्य उज्जवल हो, कला अपना सातवां आसमान छुए। कहने पर पाबंदी न हो और सत्ता जब भी मगरूर हो तो विरोध प्रदर्शन की पूर्ण आज़ादी रहे। जनता मजाज़ का लिखा बुलंद आवाज़ में गाती रहे - बोल अरी ओ धरती बोल! राजसिंहासन डावांडोल।

(तस्वीरें ब्रोशर से ली गयी हैं जो मशीन रूपी स्कैनर से गुज़रने में खराश का शिकार हुईं लेकिन देख कर अनुमान लगाईए कि कैसा भव्य लगता होगा पहले सीन के नीले प्रकाश में बादशाह का शतरंज खेलना और आखिरी सीन में अपने इतिहासकार दोस्त बरनी को खून खराबे और बदहाली से आजि़ज आ दिल्ली लौटने की हिदायत दे उसी नीले प्रकाश में सिंहासन पर ही सो जाना।)

Wednesday, October 31, 2012

प्रहसन


डाकिये की ओर से: क्या वक़्त था कि जब गांव के बड़े से घर में एक भी घड़ी नहीं थी। और घड़ी की जरूरत भी नहीं थी। छत पर सोए हुए सुबह सूरज की चैंधियाती हुई धूप पड़ी तो जगना हुआ। धूप चापाकल से सरका तो साढ़े आठ का बजना मालूम हुआ। प्राइमरी स्कूल की घंटी बजी याने 9:50। भंसा घर के घर पर धूप चढ़ी तो साढ़े तीन। 

क्या वक्त था कि पटना में हर वक्त रेडियो चलता रहता था। काम कोई नहीं रूकते थे। जीवन संगीतमय लगता था। आज रेडियो शौक से सुनते हैं या बोर होकर। शौक से सुनो तो भी एफ एम पर वही हर-हर-कच-कच। उन दिनों यह जीवन का अंग था। स्टूल पर ऐंड़ी उचकाकर मर्तबान से कटहल अचार उतार रहे हों या शेविंग कर लेने के बाद अपने गालों पर नज़रों का ज़ूम करके देखना कि अबकी कहां कहां ब्लेड लगी है। मैथ गज़ल सुने बिना नहीं बनता था। मां कंघी करते हुए रेडियो के साथ ही दबी आवाज़ में गाती - ये दिल तुम बिन कहीं लगता नहीं हम क्या करें। गोया तब सारा समय रेडियो से तय होता था। विविध भारती से आवाज़ छन ऐसे आती जैसे जून के महीने में गीले उजले बालू पर कोई भीगा घड़ा रखा हो और उसके मुंह पर उजले कपड़े की दो तीन तह रखे हों। उसी से आवाज़ छन कर आती हो। उन दिनों रेडियो प्रस्तोता हीरो थे। हम आवाज़ों की नकलें करते। 

 बाद में ए आई आर के कैंटीन और न्यूज़ रूम में उन्हीं आवाज़ों से सीधे सीधे मिलता, काम करता, चाय पीता। आवाज़ का जादू टूटता। क्लेयर नाग, शुभ्रा शर्मा, आशा निवेदी, आशुतोष जैन। और पीस टू कैमरा देते वो पटना दूरदर्शन वाले संवाददाता जो अपने नाम पर विशेष पाॅज़ देते - सुधांशु रंजन, दूरदर्शन समाचार, पटना। 

 बीप की चार छोटी और एक लंबी आवाज़.... - ये आकाशवाणी है अब राजेंद्र चुघ से समाचार सुनिए। यानि सुबह के 7:45। अगर यही रात को तो 8:45। 8:45, यानि उससे ठीक पहले हवामहल। अक्सर हवामहल का क्लाईमैक्स कट जाता। तब वैसी ही कोफ्त होती जैसे उन दिनों सिनेमा शुरू होने से पहले कितने रील की है यह देखने से छूट जाता। हवामहल का वो सिग्नेचर काॅमेडी भरा सिग्नेचर ट्यून। उन्हीं दिनों उस पर एक प्रहसन सुना जो कि श्रोताओं में सुपरहिट है। सिबाका गीतमाला की तरह। पिछले दिनों आकाशवाणी दिल्ली से ‘इक्वेरियम के मछली’ सुनते वक्त वो प्रहसन उदयपुर की ट्रेन की बहुत याद आई। 

 आप भी सुनिए यह स्वस्थ, गुदगुदाने वाला प्रहसन।

 


Saturday, September 29, 2012

नीली झील और बुरी बात (करतार सिंह दुग्गल )

इस शहर में रहने के लिए मुझे फ्लैट मिला था,कोई करे भी क्या देश तेजी से तरक्की कर रहा है,हर शहर में भीड़ बढ़ गयी है,छोटे छोटे कस्बे बड़े बड़े शहर बन चुके है.दस दिन बाद किसी गली से गुजरो तो गली पहचानी नही जाती.दोबारा किसी पिकनिक की जगह पे जाओगे या बाँध बन चुका होता है या बिजलीघर बन चुका होता है.जहाँ नज़र उठाओ नज़र धुंए की चिमनियो से टकरा कर रह जाती है,हर शहर के साथ लगती ज़मीं लोग बेचते जा रहे है।

घर चाहे छोटा था पर एक  अच्छी बात थी गोल कमरे की खिड़की से झील दिखायी देती थी.खिड़की में जा के खड़े हो जाओ तो आँखों में ठण्ड सी पड़ जाती थी,नीली  झील के सीने पे तैरती नावें,नावों में बैठे मछेरों  के गीत,अक्सर झील से मीठी-मीठी हवा आ रही होती..ठंडी और मीठी.झील के गिर्द हरे खेतों की सुगंध से भरी हुई।
इए घर में आये बहुत दिन नहीं हुए थे कि  हमने महसूस किया की बच्चू अक्सर चिड़चिड़ाया रहता था,
कई बार उसे गुस्सा आ जाता तो गुस्से में ऐसी हरकत कर बैठता की हमे भी कई बार शर्मिन्दा  होना पड़ता,उसको  भी बाद में बहुत परेशानी होती.
बच्चू के बिगड़ रहे मिजाज़ से हम दोनों बहुत परेशान थे,सोच-सोच के हम दोनों इस नतीजे पर पहुंचे की एक तो  उसके चिडचिडे  होने का कारन ये घर था-पहली मंजिल का फ्लैट,जिसमे रहते बच्चा दबा-दबा घुटा-घुटा जकड़ा हुआ सा महसूस करता.धरती से स्पर्श टूट गया था,दूसरा कारन उसकी बहन जो हर जगह हाज़िर  होती .एक तो दिलचस्प उम्र ,कही हंस रही होती,कहीं खेल रही होती,कही उसे प्यार किया जा रहा होता,बच्चू को शायद लगता कि  उसकी जायदाद बांटी जा रही है.
कारन कोई भी  हो,बच्चू का बात -बात पे खीझ उठना हमें बिलकुल पसंद नहीं था.हमनें उसे अपने पास बिठा कर कई बार समझाया भी.फैसला ये हुआ कि  जब भी उसका मूड बिगड़ रहा होगा हम उसे "बुरी बात" कह के याद दिला दिया  करेंगे कि उसे गुस्सा आ रहा है फिर  भी अगर उससे अपने गुस्से पे काबू ना हो तो गोल कमरे की खिड़की में खड़े हो के सामने नीली झील को देखा करेगा..झील के झिलमिला रहे पानी को,झील में तैर रही नावों को झील के आगे -पीछे खेतों को...ऐसे करके उसका गुस्सा ठंडा हो जायेगा।

यह तरकीब बहुत कामयाब रही.कई बार हमने देखा बच्चू को हम याद दिलाते "बुरी बात" तो वह संभल जाता.कई बार उसे जब ज्यादा गुस्सा आता तो वह गोल कमरे की खिड़की में खड़ा हो कर सामने झील को देखता छम-छम आंसू बहा रहा होता.कई बार ऊँचा-ऊँचा रो के मन की भडास निकाल लेता।

बच्चू के लिए प्रयोग की तरकीब हम पर खुद बहुत सही रही पति  -पत्नी में जिसे क्रोध आता नीली झील का जादू अवश्य काम आता।
एक दिन हमने देखा लूमड़ी की तरह शिकार ढूंढ़ती बिट्टी शरारत से कमरे में इधर-उधर घूम रही थी.फिर उसकी नज़र बच्चू की सियाही की दवात पर पड़ी.हमारे  देखते-देखते उसने दवात उसकी कापी पर उल्टा दी.बच्चू को ये देख के जैसे आग लग गयी.गुस्से में बिट्टी की तरफ बढ़ा की तिपायी साफ़ करती माँ ने याद दिला दिया "बुरी बात"..उन्ही कदमो से बच्चू गोल कमरे की खिड़की में जा खड़ा हुआ.सामने नीली झील को देखता आंसू गालो पर लुड़कते रहे।

बहुत दिन नही गुजरे थे  इक दिन स्कूल से वापिस आके बच्चू देखता है कि उसकी सबसे प्यारी कहानियों  की किताब से बिट्टी ने  तस्वीरे अलग कर दी थी.बाकी किताब अलग.बच्चू दांत पीस के रह गया.जब -जब किताब देखता उसका गुस्सा भड़क उठता .माँ को बार-बार याद दिलाना  पड़ता "बुरी बात" ,"बुरी बात".उस रात अकेले  गोल कमरे में खड़े हुए उसे साँझ हो गयी.उस रात बच्चू से खाना नहीं खाया गया।

मेरी पत्नी का ख़्याल था कि बिट्टी के लिए अलग और बच्चू के पढ़ने के लिए अलग कमरा होना चाहिये पर इस फ्लैट में ये सब कहाँ संभव था.इस फ्लैट में तो बस एक खिड़की थी.सामने  झील पे खुलती .नीली झील का नजारा सुबह और होता,दोपहर में और शाम ढले और.नयी दुल्हन की तरह रूप बदलती हर रंग में सुंदर लगती।

एक शाम हम चाय पी रहे थे,छुट्टी का दिन था.सो के उठे हम आराम से गप्पे मार रहे थे.चाय भी पी रहे थे.बच्चू बाहर खेलने गया हुआ था.कुछ देर बाद वह अपना बैट ले के आ गया और हमारे पास खड़ा हमारी बाते सुनने लगा.एक मक्खी बार-बार चाय की केतली पे आ बैठती .बच्चू  उसे बैट से उडाता वह फिर बैठ जाती,हम बच्चू  को मना कर रहे थे की ऐसे मत करो मेज़ बर्तनों से भरी है.मक्खी फिर आयी बच्चू ने उसे उड़ाने के लिए बैट घुमाया इस बार चाय की केतली माँ की झोली में गिरी,गर्म चाय,माँ के कपड़ो का सत्यानास हो गया.माँ गुस्से में कडक पड़ी..केतली के टूट जाने से मुझे भी क्रोध आया. बच्चू पे गरज पड़ा.वैसे के वैसे खड़े बच्चू ने पहले अपनी माँ की तरफ देख के कहा "बुरी बात" फिर मेरी तरफ देख के कहा "बुरी बात" 
फिर हम तीनों हंसने लगे.कुछ देर बाद बच्चू ने माँ के जला पैर और इतनी खूबसूरत केतली को टुकड़े-टुकड़े देख बच्चू को जैसे अपने आप पे गुस्सा आ गया और वह कितनी देर गोल कमरे की खिडकी पर खड़ा रहा।

फिर हमने सुना हमारे घर के सामने बच्चो के लिए सिनेमाघर बनने वाला था.नीचे लायेबरैरी और अजायबघर.पहली मंजिल पे सिनेमा,दूसरी मंजिल पर क्लब और छत पर बच्चो  के लिए पूल ..बच्चू सुन के खिल गया.हम भी बहुत खुश हुए.देखते ही देखते नीव भरनी शुरू हो गयी.नीली झील के आगे पीछे की सारी ज़मीं टुकड़े-टुकड़े कर के  बिक गयी.कैलाश कालोनी बन गयी.जहाँ बच्चो के आकर्षण के लिए बहुत कुछ बन गया.क्लब का मेंबर बनने वाले बच्चों में बच्चू सबसे पहला था.
स्कूल से आके सिनेमा या कल्ब..बच्चू का बहुत मन लग गया.घर आ के घंटो कलब की कहानियां कहता रहता.अकेले बैठे किताबें पढता  रहता.बच्चू के ढ़ेरों दोस्त बन गये,कभी ये जा रहा होता कभी वो अ रहे होते।

एक दिन शाम को जब में घर लौटा तो दोनों बच्चे रो रहे हे.बिट्टी ने बच्चू की कोई चीज़ छेड़ी तो बच्चू ने उसे चांटा मार दिया,बिट्टी के रोने से माँ ने बच्चू को मारा.दोनों बच्चे मार से रो रहे थे.माँ बेटे के क्रोध के बारे में सोच कर मुझे भी गुस्सा आने लगा.कितनी देर बाद मुझे भूली हुई खिडकी की याद आयी.मैं भागता हुआ जल्दी-जल्दी गोल कमरे की तरफ गया.नीली झील कहीं भी नहीं थी.ना नीली झील,ना झील में तैरती नावें,ना नावों में बैठे मछेरों के गीत.कुछ भी नहीं..बस नई बसी कालोनी.झील कही नहीं भी थी।

फिर अक्सर घर में शोर शराबा रहता.बिट्टी  रो रही होती,बच्चू चिल्ला रहा होता,माँ ख़फ़ा हो रही होती मुझे गुस्सा आ रहा होता...

Wednesday, August 22, 2012

पैकेज


डाकिए की ओर से: हाल ही में मन्नू भंडारी की एक कहानी यह भी से गुज़र रहा था और मन्नू की विनम्रता के आगे निहाल था। लेकिन मेरी समस्या दूसरी थी। उसमें जहां जहां उनके पति राजेन्द्र यादव की बुराईयां, झूठ और गलतियां सामने आ रही थी मुझे न जाने क्यों राजेन्द्र यादव के प्रति दिल में एक हमदर्दी पैदा होती जा रही थी। कुछ तो है उनमें खास ऐसा मुझे लगा और आगे चलकर यही मन्नू ने भी लिखा। दूसरों की जिंदगी में झांकने की बीमारी पैदाइशी लेकर आया हूं सो हर पेचीगदी और उलझी हुई चीज में माथा खपाना आदत हो गई है। यह वैसा ही है जैसा लव ट्रेंगल में आप रूचि लेते हैं। कई बार यह त्रिकोण जिंदगी और इसी परिस्थितियां बनाती हैं तो कई बार अपना स्वभाव और आदतें।

वैसे हिन्दी साहित्य में राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी एक मिसाल लगते हैं जहां राजेंद्र ने पूरा जीवन ही साहित्य को समर्पित किया वहीं मन्नू ने दोनों फ्रंट यानि परिवारिक जिम्मेदारी और लेखन कार्य दोनों मोर्चे पर जमकर लड़ीं। इन दोनों की जोड़ी डाकिए को इसलिए भी आकर्षित करती है क्योंकि दोनों ही ने लेखन में ईमानदारी का दामन थामे रखा। आश्चर्य यह भी होता है कि दोनों के पर्याप्त पाठकवर्ग होने के बावजूद इनके रिश्तों की खटास कागज़ पर भी सम्मानित तरीके से आई और मर्यादित तरीके से दोनों ने अपना पक्ष भी रखा। सार्वजनिक तौर पर भी एक दूसरे का सम्मान किया। इससे उनका यह जीवन भी साहित्य की एक अच्छी और स्वस्थ विधा में शामिल हो गई। इसे एक उपलब्धि भरी गर्वित लेखकीय यात्रा कह सकते हैं।

कहीं से बहुत ही अस्पष्ट छपाई में राजेन्द्र यादव लिखित मुड़ मुड़ के देखता हूं का एक टुकड़ा हाथ लगा। उसमें कई कंफेशन हैं और कई चिंताएं और सवाल भी जो डाकिए के उधेड़बुन से मेल खाती लगीं। आप जानते हैं सबसे अच्छी और प्रिय किताब वही होती है जो हमें वैसे ही मनःस्थिति से मेल खाती लगती है। हमें जानी हुई बात ही बताती है। सो आपसे बांट रहा हूं। भरी जुकाम में पढ़ी गई एक सीधी सपाट रीडिंग में कई विराम की गलतियां होंगी कई उतार चढ़ाव की सो अग्रिम क्षमा के साथ आपके समक्ष प्रस्तुत है :-



और अब मन्नू भंडारी की बीबीसी के साथ बातचीत के एक हिस्से को बीबीसी पर ही सुनी जा सकती है : यहाँ

Monday, August 13, 2012

एक कविता सुरजीत पातर की..

अब घर को लौटना बहुत मुश्किल है..
कौन पहचान पायेगा हमें..
माथे पर मौत जो दस्तखत कर गयी है..
चेहरे पर छोड़ गये है निशां मेरे यार..
शीशे में दिखता है कोई और-और
आँखों में कोई चमक है..
किसी ढह चुके घर से आती है रोशनी सी..

डर जायेगी मेरी माँ..
मेरा पुत्र..मुझसे बड़ी उम्र का..?
किस साधू का श्राप लगा है इसे..?
किस जलन की मारी ने कर दिया जादू टोना..
डर जाएगी मेरी माँ..
अब घर को लौटना अच्छा नहीं...

इतने डूब चुके सूरज..
इतने मर चुके खुदा..
जीती जागती माँ को देख कर..
उसके या खुद के प्रेत होने का होगा भ्रम..
जब मिलेगा कोई दोस्त पुराना..
बहुत याद आयेगा अपने अंदर से..
मर चुका मोह..
रोना आयेगा अपने पर और फिर याद आयेगा..
आँसू तो रखे रह गये मेरे दूसरे कोट की जेब में..

जब हाथ रखेगी सर पर मेरे ईसरी..
देगी असीस कोई..
किस तरह बताऊंगा मैं..
कि इस सर में छुपे हुए है ख़्याल किस तरह के..
अपनी ही लाश ले जाता आदमी..
पति की चिता पर खाना पकाती कोई हैमलिट
जाड़ों में लोगो की चिता की आग सेंकने वाला खुदा..
जिन आँखों से देखे है मैंने दुखांत..
किस तरह मिलाऊँगा ऑंखें..
अपने बचपन की तस्वीर से..

शाम को जब मढ़ी का दिया जलेगा..
गुरद्वारे शंख बजेगा..
वह बहुत याद आयेगा..
वह कि जो मर गया..
वह कि जिस की मौत का..
इस भरी नगरी में सिर्फ़ मुझको पता है..

अगर किसी ने अब मेरे मन की तलाशी ले ली..
तो रह जाउंगा बहुत अकेला ..
किसी दुश्मन देश के जासूस की तरह..
अब घरों में बसना आसान नहीं..
माथे पर मौत जो दस्तखत कर गयी है..
चेहरे पर छोड़ गये है निशां मेरे यार..
शीशे में दिखता है कोई और-और...

(मूल पंजाबी से अनुदित)

Wednesday, July 18, 2012

एक बार और समझा दो राजेश! मृत्यु बेसिक इंस्टिंक्ट है. हम खामखाँ पसीने पसीने हो रहे हैं



सीन - 1
बाहर/गैराज के सामने/दिन

काका के बेटे उससे मसला सुझलाने आते हैं। गाड़ी में आते हैं। तकरार बढ़ती है और बेटे को निराश होकर लौटना पड़ता है लेकिन गाड़ी स्टार्ट नहीं होती तो काका उसे ठीक करते है। गाड़ी एक झटके से स्टार्ट होती है, स्केलेटर दबता है और आगे बढ़ती है। शीशे के सामने काका का हाथ आता है - फिफ्टी रूपीज़ प्लीज़।
------- (अवतार)

सीन - 2
अंदर/ अमिताभ का कमरा/दिन

काका अमिताभ के कहते हैं - मैं तो तुम्हारी भलाई करने आया था रे। इनको आपस में लड़वाने और तेरे कारखाने का फायदा कराने। मगर इन मज़लूमों के झोपड़े देखो। कई कई शाम खाना नहीं पकता। उनके साथ रहते रहते मुझे उनसे प्यार हो गया है। पता नहीं चला मैं कब उनका हो गया, वो कब मेरे हो गए।
------- (नमकहराम)

सीन - 3
अंदर/ क्लिनीक/ दिन

काका: मैं तो तुझे मेरी उमर लग जाए का आर्शीवाद भी नहीं दे सकता बहन। ------- (आनंद)

सीन - 4
कुछ फौजी लड़ाई पर जा रहे हैं। फटे पुराने कपड़ों में ह्वील चेयर लुढ़कता काका आते हैं। पृष्ठभूमि में गीत बजता है - देखो वीर जवानों अपने खून पे ये इल्ज़ाम न आए, मां न कहे कि वक्त पड़ा तो देश के बेटा काम न आए।                  (फिल्म - याद नहीं)

इसी तरह सीन 5, 6, 7, 8, 9 और 10।

सभी सीन तेज़ी से एक दूसरे में मर्ज होते हैं।  शोर्ट डिजोल्व होता है। एक तस्वीर उभरती है। 

नीचे ग्राफिक उभरता है - राजेश खन्ना

*****

कैसे कहूं तुम मेरे भीतर कैसे और कितने रूपों में जिंदा हो। ऐसा ही कि ऊपर के सारे सीन स्मृति के आधार पर लिखी है। गलतियां होंगी उनके ब्यौरे में मगर उनमें तुम साबुत बचे हो।

तब हमारे घर में टी वी नहीं था। विविध भारती पर किसी न किसी रूप में तुम्हारी आवाज़ सुनाई देती। कुछ था उन संवाद अदायगी में जो मुझमें कनेक्ट हो गया। तुम्हारा बाबू मोशाय बोलना ऐसा था कि मुझे ही बुला रहे हो अमिताभ तो किरदार का बहाना था। चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाए गाना आता तो मैं कल्पना करता हीरो के चहरे पर क्या भाव आते होंगे !

क्या सुनते थे कहानियां कि तुम्हारी उजली फियेट पर लड़कियों के लिपस्टिक के निशान भरे रहते थे। वो क्या था कि तुम्हारी आवाज़ और उदासी दिल को इतनी छूती थी ? कि तुम अभिनय करके निकल लेते थे और हम आज तक रोना पसंद करते हैं। बड़ा हुआ तो जाना दरअसल तुममें कोई एक्स फैक्टर नहीं था। न तो तुम नाचना जानते थे न ही कोई और गुण। मगर फिर क्या ? सिर्फ सादादिली से आंखों और चेहरे से अभिनय करना ? फिर क्यों छोटे बालों में तुम्हारी आखों की पलकें देख लगता था कि तुम्हें भगवान ने नहीं बल्कि लड़कियों ने ही अपने हाथों से पैदा किया है। हल्की चांदनी रातों में, देर शाम के झुटपुटे में, खिड़की से आती ताज़ी हवा में, खुले बालों में, ढ़ीले कपड़े पहन, रूमानी ख्याल में गुम, प्यार से अपने गोद में किसी बेजान दिल पर पेंसिल से एक तिलनुमा निशान उकेरा होगा जिससे तुम पैदा हुए- दिल के राजकुमार।

तुम्हारे बारे में एक बार पढ़ा था कि तुमने एक बार समंदर किनारे मगरूर होकर लड़कियां छेड़ी थीं। पता चला कि तुम भी आदमी ही थे मेरी तरह। खूब शराब पीने वाले। तुम्हारे जाने के साथ साथ अपनी भी ईच्छा लिख रहा हूं कि मैं भी अपनी कमज़ोरियों के साथ याद किया जाना चाहूंगा।

निंश्चित रहना कि कल जो गुमनाम है उसमें भी बचा रखूंगा तुम्हारे लिए प्यार।

दर्द और नशे का एक आनंदमयी अवतार मेरे अमर प्रेम।

Wednesday, May 9, 2012

कठघरे में आपा और मंटो

डाकिए की ओर से:   मौके पर सही साथ मिला है। हाल ही में इस्मत आपा की आत्मकथा कागज़ी है पैरहन का अंग्रेजी अनुवाद हुआ है। हाथी रूपी समाज के सूंड़ में लाल चींटी के रूप में घुसे मंटो और इस्मत एक ही पहलू के दो सिक्के थे। मंटो थोड़ा ज्यादा था। बकौल मंटो कुछ लोग मुझे प्रगतिशील कहते और जो नहीं कह पाते तो इस्मत चुगताई भी। मंटो ने इस्मत को भी बड़े अलहदा ढंग से याद किया है इस दिलचस्पी के साथ कि लोग हमारा नाम यों  जोड़ते हैं जैसे बंबई में राजकपूर और नरगिस। बहरहाल खत किसी के नाम लिखे लिखाए हों तो आलसी डाकिया छज्जे पर फेंकने भर से गुरेज नहीं करता। शुक्रिया हिन्दुस्तान समाचार पत्र का जिसने इस्मत चुगताई की आत्मकथा कागज़ी है पैरहन किताब के मार्फत इस्मत आपा की 'लिहाफ' और मंटो की 'बू' पर फहाशी का मुकदमा चला। पेश है वो तस्वीर जो मंटो अपने लक्ष्य को लेकर किस हद तक स्पष्ट था यह ज्ञात होता है। वैसे मेरे एक मित्र सुशील कुमार छौक्कड़ ने जब फेसबुक पर यह संदेश डाला कि "मंटो का सौवां जन्मदिन 11 मई को और कोई हलचल नहीं, अफसोस" तो कार्टूनिस्ट काजल कुमार ने सही लिखा कि "न वोट, न गुट तो मंटो कौन?"
*****

44 में दिसम्बर के महीने में सम्मन मिला कि हमें जनवरी में कोर्ट में हाजिर होना है। सब कह रहे थे जेल-वेल नहीं, बस जुर्माना हो जाएगा। और हम बड़े जोश से लाहौर के लिए गर्म कपड़े तैयार करवाने लगे।
सीमा बहुत छोटी और कमजोर थी और बड़ी ऊंची आवाज से रोती थी। चाइल्ड स्पेशलिस्ट को दिखाया तो उसने कहा, बिल्कुल तन्दुरुस्त है, यूं ही गुल मचाती है। उसे लाहौर की सर्दी में ले जाना ठीक न था। एकदम इतनी सर्दी न ङोल सकेगी। तो हमने बच्चाी को अलीगढ़, सुल्ताना जाफरी की अम्मा के पास छोड़ा और लाहौर रवाना हो गए। देहली से शाहिद अहमद देहलवी और वह कातिब जिन्होंने किताबत की थी, साथ हो गए थे, क्योंकि बादशाह सलामत ने उन्हें भी मुलजिम करार दिया था। यह मुकद्दमा अदबे-लतीफ पर नहीं, बल्कि उस किताब पर चला था, जो शाहिद अहमद देहलवी ने छापी थी। हमें सुल्ताना लेने आ गई। वह उन दिनों लाहौर रेडियो स्टेशन पर काम करती थी और लुकमान साहब के यहां रहती थी। उनकी बड़ी शानदार कोठी थी। बीवी-बच्चाे मैके गए हुए थे, इसलिए बस अपना ही राज था। मंटो भी पहुंच गए थे और पहुंचते ही हमारी खूब दावतें हुईं। ज्यादातर तो मंटों के दोस्त थे, मगर मुङो भी अजूबा जानवर समझकर देखने आ जाते थे। हमारी एक दिन पेशी हुई, कुछ भी न हुआ। बस जज ने नाम पूछा और यह कि मैंने यह कहानी लिखी है या नहीं। मैंने इकबाले-जुर्म किया कि लिखी है। बस। बड़ी ना-उम्मीदी हुई। सारे वक्त कुछ हमारे वकील साहब बोलते रहे। हम चूंकि आपस में खुसर-फुसर कर रहे थे, कुछ पल्ले नहीं पड़ा। उसके बाद दूसरी पेशी पड़ गई और हम आजाद होकर गुलर्छे उड़ाने लगे। मैं, मंटो, शाहिद तांगे में बैठकर खूब शॉपिंग करते फिरे। कश्मीरी दोशाले और जूते खरीदे। जूतों की दुकान पर मंटो के नाजुक सफेद पैर देखकर मुङो बड़ा रश्क आया। अपने भद्दे पैर को देखकर मोर की तरह मातम को जी चाहा।
‘मुङो अपने पैरों से घिन आती है,’ मंटो ने कहा।
‘क्यों? इतने खूबसूरत हैं।’ मैंने बहस की।
‘मेरे पैर बिल्कुल जनाने हैं।’
‘मगर जनानियों से तो इतनी दिलचस्पी है आपको!’
‘आप तो उल्टी बहस करती हैं। मैं औरत से मर्द की हैसियत से प्यार करता हूं। इसका मतलब यह तो नहीं कि खुद जनाना बन जाऊं।’
‘हटाइए भी जनाने और मर्दाने की बहस को, इनसानों की बात कीजिए। पता है नाजुक पैरोंवाले मर्द बड़े हिस्सास और जहीन होते हैं। मेरे भाई अजीम बेग चुगताई के पैर भी बड़े खूबसूरत हुआ करते थे। मगर..।’
.. लाहौर कितना खूबसूरत था! आज भी वैसा ही शादाब कहकहे लगाता हुआ, बाहें फैलाकर आनेवालों को समेट लेनेवाला। टूटकर चाहनेवाले बे-तकल्लुफ जिंदा-दिलों का शहर, पंजाब का दिल। तब मेरे दिल से बेसाख्ता शहंशाह बर्तानिया के हक में दुआइया कलमे निकलने लगे कि उन्होंने हम पर मुकदमा चलाकर लाहौर में ऐश करने का सुनहरा मौका दिया। हम दूसरी पेशी का बड़ी बेकरारी से इंतजार करने लगे। चाहे फांसी भी हो तो कोई परवा नहीं, अगर लाहौर में हुई तो यकीनन शहादत का रुतबा पाएंगे और लाहौरवाले बड़ी धूम से हमारे जनाजे उठाएंगे। दूसरी पेशी नवम्बर के खुशगवार मौसम में पड़ी, यानी 1946 ई. में। शाहिद अपनी फिल्म में उलङो हुए थे। सीमा की आया बहुत होशियार थी और अब सीमा बहुत मोटी-ताजी और तंदुरुस्त थी। इसलिए मैंने उसे बंबई में छोड़ा और खुद हवाई जहाज से देहली और वहां से शाहिद अहमद देहलवी और उनके कातिब के साथ रेल में गई। कातिब साहब से बड़ी शर्मिदगी होती थी, वह बेचारे मुफ्त में घसीट लिए गए। बड़े शामोश, मिस्कीन से थे। हमेशा आंखें झुकीं, चेहरे पर उकताहट, उन्हें देखकर एहसासे-जुर्म एकदम उभर जाता था। मेरी किताब की किताबत में फंस गए। मैंने उनसे पूछा- 
‘आपकी क्या राय है? क्या हम मुकद्दमा हार जाएंगे?’
‘मैं कुछ कह नहीं सकता, मैंने कहानी नहीं पढ़ी।’
‘मगर कातिब साहब, आपने किताबत की है।’
‘मैं अलफाज जुदा-जुदा देखता हूं और लिख देता हूं। उनके मानी पर गौर नहीं करता।’
‘कमाल है! और छपने के बाद भी नहीं पढ़ते?’
‘पढ़ता हूं, कहीं गलती तो नहीं रह गई।’
‘अलग-अलग अलफाज!’
‘जी हां!’ उन्होंने नदामत से सर झुका लिया। थोड़ी देर बाद बोले-
‘एक बात कहूं, बुरा तो नहीं मानेंगी!’
‘नहीं।’
‘आप कियां (के यहां) इमला की बहुत गलतियां होती हैं।’
‘हां, वो तो होती हैं। अस्ल में सीन, से और साद में गड़बड़ा जाती हूं। जो, जाद, जे, जाल में भी बहुत कनफ्यूजन होता है। यही हाल छोटी हे, बड़ी हे और दोचश्मी हे का है।’
‘आपने तख्तियां नहीं लिखीं?’
‘बहुत लिखीं। और मुस्तकिल इन्हीं गलतियों पर बहुत मार खाई मगर..।’
‘दरअस्ल जैसे मैं अलफाज पर ध्यान देता हूं, मानी की तरफ तवज्जह नहीं देता, इसी तरह आप अपनी बात कहने में ऐसी उतावली होती हैं कि हरूफ पर तवज्जह नहीं देतीं।’
‘ऊंह!’ अल्लाह कातिबों को जीता रखे, वो मेरी आबरू रख लेंगे। मैंने सोचा और टाल दिया।
.. पेशी के दिन हम कोर्ट में हाजिर हुए और वह गवाह पेश हुए जिन्हें यह साबित करना था कि मंटो की ‘बू’ और मेरा ‘लिहाफ फुहश’ हैं। मेरे वकील ने मुङो समझा दिया कि जब तक मुझसे बराहे-रास्त सवाल न किया जाए, मैं मुंह न खोलूं। वकील खुद जो मुनासिब समङोगा करेगा।
पहले ‘बू’ का नंबर आया।
‘ये कहानी फुहश है?’ - मंटो के वकील ने पूछा।
‘जी हां,’ गवाह बोला।
‘किस लफ्ज से आपको मालूम हुआ कि फुहश है?’
गवाह : ‘लफ्ज ‘छाती’।’
वकील : ‘माइ लॉर्ड, लफ्ज छाती फुहश नहीं है।’
जज : ‘दुरुस्त।’
वकील : ‘लफ्ज छाती फुहश नहीं है?’
गवाह : ‘नहीं, मगर यहां मुसन्निफ ने औरत के सीने को छाती कहा है।’
मंटो एकदम से खड़ा हो गया और बोला-
‘औरत के सीने को छाती न कहूं तो क्या मूंगफली कहूं?’
कोर्ट में कहकहा पड़ा। मंटो भी हंसने लगा। ‘अगर मुलजिम ने फिर इस किस्म का छिछोरा मजाक किया तो कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट के जुर्म में बाहर निकाल दिया जाएगा या माकूल सजा दी जाएगी।’ मंटो को उसके वकील ने चुपके-चुपके समझाया और वह समझ गया। बहस चलती रही और घूम-फिरके गवाहों को बस एक ‘छाती’ मिलता था जो फुहश साबित न हो पाता था। ‘लफ्ज छाती फुहश है, घुटना या कुहनी क्यों फुहश नहीं?’ मैंने मंटो से पूछा।
‘बकवास!’ मंटो भड़क उठा। बहस चलती रही। हम लोग उठकर बरामदे में डगर-डगर करती बेंचों पर जा बैठे। अहमद नदीम कासमी एक टोकरा माल्टे लाए थे। उन्होंने नफासत से माल्टे खाने की तरकीब बताई। माल्टे को आम की तरह पिलपिलाकर छोटा सा सुराख कर लो और मजे से चूसते रहो। टोकरा भर माल्टे हम बैठे-बैठे चूस गए। माल्टों से पेट भरने के बजाय और शिद्दत से भूख जाग उठी। लंच ब्रेक में किसी होटल पर धावा बोला दिया। सीमा की पैदाइश के सिलसिले में मैं बहुत बीमार रही थी, सारी चर्बी छट गई थी, गुरग्गन खानों का परहेज नहीं रहा था। मुर्गी इतनी कवी-हेकल थी कि बिल्कुल गिद्ध या चील के टुकड़े लग रहे थे। मोटी-मोटी, काली मिर्च छिड़ककर गर्म-गर्म कुल्चों के साथ और पानी की जगह कंधारी अनार का रस। बे-इख्तियार जी से मुकद्दमा चलानेवालों के लिए दुआ निकल रही थी।
 ..
कोर्ट में बड़ी भीड़ थी। कई असहाब हमें राय दे चुके थे कि हम मुआफी मांग लें। वो जुर्माना हमारी तरफ से अदा करने को तैयार थे। मुकद्दमा कुछ ठंडा पड़ता जा रहा था। ‘लिहाफ’ को फुहश साबित करनेवाले हमारे गवाह हमारे वकील की जिरह से कुछ बौखला से रहे थे। कहानी में कोई लफ्ज काबिले-गिरफ्त नहीं मिल रहा था। बड़े सोच-विचार के बाद एक साहब ने फरमाया कि ये जुमला ‘..आशिक जमा कर रही थीं,’ फुहश है।
‘कौन सा लफ्ज फुहश है? जमा या आशिक? वकील ने पूछा।’
‘लफ्ज आशिक!’ गवाह ने जरा तकल्लुफ से कहा।
‘माई लॉर्ड लफ्ज आशिक बड़े-बड़े शुअरा ने बड़ी फरावानी से इस्तेमाल किया है और नातों में इस्तेमाल किया गया है। इस लफ्ज को अल्लाहवालों ने बड़ा मुकद्दस मुकाम दिया है।’
‘मगर लड़कियों का आशिक जमा करना बड़ी मायूब बात है,’ गवाह ने फरमाया।
‘क्यों?’
‘इसलिए, क्योंकि..ये शरीफ लड़कियों के लिए मायूब बात है।’
‘जो लड़कियां शरीफ नहीं उनके लिए मायूब नहीं?’
‘अ..नहीं।’
‘मेरी मुवक्किल ने उन लड़कियों का जिक्र किया है जो शरीफ नहीं होंगी। क्यों साहब, बकौल आपके, गैर-शरीफ लड़कियां आशिक जमा करती हैं?’
‘जी हां।’
‘उनका जिक्र करना फुहाशी नहीं। मगर एक शरीफ खानदान की तालीमयाफ्ता औरत का उनके बारे में लिखना काबिले-मलामत है,’ गवाह साहब जोर से गरजे।
‘तो शौक से मलामत फरमाइए, मगर कानून की गिरफ्त के काबिल नहीं।’
मुआमला बिल्कुल फुसफुसा हो गया।
‘अगर आप लोग मुआफी मांग लें तो हम आपका सारा खर्चा भी देंगे और..’ एक साहब न जाने कौन थे, चुपके से मेरे पास आकर बोले।
‘क्यों मंटो साहब, मुआफी मांग लें! जो रुपए मिलेंगे, मजे से चीजें खरीदेंगे।’ मैंने मंटो से पूछा।
‘बकवास,’ मंटो ने अपनी मोरपंखी आंखें फैलाकर कहा।
‘मुङो अफसोस है, यह सरफिरा मंटो राजी नहीं।’
‘मगर आप! अगर आप ही..।’
‘नहीं, आप नहीं जानते। यह शख्स बड़ा फित्तीन है। बंबई में मेरा रहना दूभर कर देगा। इसके गुस्से से वह सजा बदजर्हा बेहतर होगी जो मुङो मिलनेवाली है।’ वह साहब उदास हो गए क्योंकि हमें सजा नहीं मिली। जज साहब ने मुङो कोर्ट के पीछे एक कमरे में तलब किया और बड़े तपाक से बोले, ‘मैंने आपकी कहानियां पढ़ी हैं और वो फुहश नहीं। और न ‘लिहाफ’ फुहश है। मगर मंटो की तहरीरों में बड़ी गलाजत भरी होती है।’
‘दुनिया में भी गलाजत भरी है,’ मैं मखनी आवाज में बोली।
‘तो क्या जरूरी है कि उसे उछाला जाए!’
‘उछालने से वह नजर आती है और सफाई की तरफ ध्यान जा सकता है।’
जज साहब हंस दिए।
न मुकदमा चलने से परेशानी हुई थी, न जीतने की खुशी हुई। बल्कि गम ही हुआ कि अब फिर लाहौर की सैर खुदा जाने कब नसीब होगी।

--------कागज़ी है पैरहन, इस्मत चुगताई

आभार : हिंदुस्तान

Friday, March 16, 2012

यह कौन नहीं चाहेगा...

डाकिए की ओर से: गलती हुई यह सोचालय पर पोस्ट हो गई। ग़लती का एहसास घंटे भर बाद हुआ। यह हमारी अनामत कब थी? कविता का ट्रीटमेंट अच्छा लगा था, ज्यादा तामझाम भी नहीं। बीच की धुन एक लय को पकड़ती हुई। शुक्रिया हमारे दफ्तर के स्क्रिट रायटर कपिल शर्मा का जिन्होंने यह उपलब्ध करवाई। कवि वीरेन डंगवाल हैं। प्रतिक्रिया कुछ नहीं कि कोरस में गाना अब अच्छा लगता है। गुलाल का शहर याद आता है। और झूम कर वो सीन याद आता है जब पीयूष मिश्रा हमारे दिल की बात बताते हुए सरफरोशी की तमन्ना को रीडिफाइंड करते हैं तो एक एक्सट्रा मग्न होकर ताली बजाता है। अपने कालखण्ड के दुख की जब लत आम जनता को लग जाए तो जश्न मनाना भी क्या अनुकूलन है ! 




Tuesday, February 28, 2012

अँधेरे वक्त का हिसाब किताब.. विद्रोही सुर का कवि पाश...( ९ सितम्बर १९५० - २३ मार्च १९८८)


उसने महकती शैली में फूलों के गीत नहीं लिखे..उसकी कविता के शब्द गुलाब जैसे नाज़ुक नहीं..पर काँटों जैसे तीखे जरूर है..उसे ये गुमान नहीं था कि उसकी कविता समाज की सभी मुश्किलों का हल कर देगी..
"मुआफ़ करना मेरे गाँव के दोस्तों,
मेरी कविता तुम्हारी मुश्किलों का हल नहीं कर सकती"
१९७८ से १९८८ तक पाश ने कविता नहीं लिखी..१९८२ की डायरी में १३ जून के पन्ने पर लिखते है  "१९७४ में मैंने पता नहीं क्यूँ लिखा था मेरी कविता कभी चुप नहीं होगी...अब मेरी कविता को बहार आए ६ साल हो गये. शायद मेरी ज़िन्दगी में घटनाओं की फितरत बदल गयी है."
कवि पाश हर कवि की तरह सम्वेदनशील हैं, भले वो मानते थे कि कविता जैसी चीज़ उनके पास कम है..पर सम्वेदना हर गीत में, हर बोल में कविता जैसी चीज़ का अहसास दिलाती है...

१- है तो बड़ा अजीब
अगर तेरा गौना नहीं होता
तो तुझे भ्रम रहना था..
कि रंगों का मतलब फूल होता है..
बुझी राख की कोई खुशबू नहीं होती.
तू मुहब्बत को किसी मौसम का 
नाम ही समझती रहती..

तूने शायद सोचा होगा
तेरे क्रोशिये से काढ़े हुए लफ्ज़ 
किसी दिन बोल पड़ेंगे.
या
गंदले पानिओं में भीग न सकेंगे..
बटन जोड़-जोड़ कर बुनी बत्तखों के पर..
तूने कभी सोचा भी नहीं होगा..
गौना दहेज़ के बर्तनों की छन-छन में
पायल की खामोशी का बिना कफन जलना है..
या 
रिश्तों की आग में रंगों का टूट जाना है..
असल में
गौना कभी न आने वाली समझ है..
किस तरह कोई भी गाँव
धीरे-धीरे बदल जाता है "दानबाद" में.
गौना असल में सपनों का पिघल कर
पलंग, पीढ़ी ,झाड़ू में बदलना है..
है तो बड़ा अजीब..
कि हाथों पर पाले सच को,
जरा कच्ची सी मेंहदी से झिड़क देना..
या
हल चलाये खेत में दफन
कुचली हुई पगडण्डी को याद करना..
आज जब कि किनारों पर ही डूब गयी
बटनों वाली बत्तख..
आज भी हादसों के इंतज़ार में बैठी हो तुम,
महिज़ घटनाओं की दीवार के उस पार
जो कभी किसी से फांदी नहीं गयी..

है तो बड़ा अजीब
कि मैं जो कुछ भी नहीं लगता तेरा,
दीवार के इधर भी और उधर भी
मरी हुई और मरने जा रही बत्तखों को उठाये फिरता हूँ..!

 (पंजाब के तमाम गाँवों मे पुरानी रवायत से लड़की गौने मे ही पहली बाद विदा हो कर ससुराल जाती थी!)

२- तू गम न किया कर

तू गम न किया कर,
मैंने अपने दोस्तों से बोलना छोड़ दिया है..
पता है?
वह कहते थे- अब तेरा घर लौट पाना मुश्किल है..
वह झूठ कहते थे न मां,
तू मुझे अब वहां बिलकुल न जाने देना
हम वहां बबलू को भी नहीं जाने देंगे
ये वही लोग है जिन्होंने मुझसे बड़े को
तुझसे जुदा कर दिया था..
तू गम न किया कर
मैं उस अशिम चैटर्जी को 
मूंछों से पकड कर तेरे कदमों में पटक दूंगा.
वह भाई की हड्डियों को जादू का डंडा बना कर
नये लडकों के सिर पर घुमाते है..
तू रोती क्यूँ है माँ
मैं बड़ी बहन को भी उस रास्ते से वापिस ले आऊंगा..
फिर हम सभी भाई बहन
इकट्ठे हो कर पहले जैसे ठहाके लगाया करेंगे.
बचपन के उन दिनों जैसे..
जब तेरी आँखों पर दुपट्टा बांध कर
हम पलंग के नीचे छिप जाते है
और तू हाथ बढ़ा कर.. छु-छु कर हमें ढूंढा करती थी
या बिलकुल पहले जैसे जब मैं 
तेरी पीठ पर चुटकी काट कर भाग जाता था
और तू गुस्से में मेरे पीछे
बेलन खींच कर मारती थी..
मैं टूटा बेलन दिखा-दिखा तुझे बड़ा सताता था..

भाई की याद तुझे बहुत आती है न माँ?
वह बहुत भोला था
एक बार की याद है?
जब वह पेड़ से लकड़ियाँ काटते गिर पड़ा था
बांह टूट गयी थी पर हँसता रहा था..
ताकि तू सदमें से बेहोश न हो जाये
और बहन, तब कितनी छोटी थी
बिलकुल गुड़िया सी..
अब वह शहर जा कर क्या-क्या सीख गयी है
पर तू गम न किया कर..
हम उसकी शादी कर देंगे
फिर मैं और बबलू 
इसी तरह तेरी गोद में 
परियों की कहानी सुना करेंगे
हम माँ..कहीं दूर चले जायेंगे..
जहाँ सिर्फ पंछी रहते है..
जहाँ आस्मां जरा से शामियाने जितना नहीं होगा..
जहाँ पेड़ लोगों जैसे होंगे
लोग पेड़ों जैसे नहीं 
माँ तू गम ना कर..
हम फिर एक बार उन दिनों की ओर लौट जायेंगे..
वहां जहाँ शहर का रस्ता 
एक बहुत बड़े जंगल में से हो कर जाता है...!

Friday, February 24, 2012

सागर और रेत - भाग एक

डाकिये की ओर से :प्रस्तुत उद्धरण खलील जिब्रान की क्लासिक 'सेंड एंड फोम' के अपरिपक्व हिंदी अनुवाद है:



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तुम अंधे हो, मैं बहरा और गूंगा.
तो चलो, हाथों को छूकर समझें.

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आपकी प्रासंगिकता इस बात से नहीं है कि आप क्या पाते हैं, अपितु इससे है कि आप क्या पाना चाहते हैं.

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तुम मुझे कान दो, मैं तुम्हें आवाज़ दूँगा.

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Jesus the Son of Man (Khalil Gibran)


मेरा कहा, आधे से ज्यादा तो अर्थहीन ही होता है. लेकिन मैं फिर भी वो अर्थहीन कहता हूँ, जिससे कि बाकी का महत्वपूर्ण भी आप तक पहुंचे.

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‘सत्य’ जानने योग्य तो सदैव ही है, किन्तु आवश्यक्तानुसार ही कहे जाने योग्य है.

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मेरी आत्मा की आवाज़ आपके आत्मा के कानों तक कभी नहीं पहुंच सकती, लेकिन फिर भी चलो बातें करें, कि हम तन्हा न महसूस करें.

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जब दो स्त्रियाँ बात करती हैं, वो कुछ नहीं कहतीं.
जब एक स्त्री बोलती है, वो अपना सम्पूर्ण जीवन वर्णित कर चुकती है.

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केवल मूर्ख ही वाचाल से ईर्ष्या रखता है.

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आप ‘वास्तव’ में अपनी आँखें खोल के तो देखो, हर दृश्य में स्वयं को दृश्यमान पाओगे.
और हर आवाज़ में अपनी ही अंतर्ध्वनि सुनोगे, जो अपने कान ‘वास्तव’ में खुले रख के सुनोगे.

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तब जबकि शब्दों की लहरें हमेशा से ही हमारे ऊपर हैं, तो भी हमारे अंतस की गहराई सदा शांत है.

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सत्य की खोज दो के बिना संभव नहीं; एक, जो कहे; दूसरा, जो समझे.

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आओ चलो आइस-पाइस खेलें...
जो तुम मेरे दिल में छुपो तो तुम्हें ढूँढना मुश्किल कहाँ?
जो तुम अपने ही बनाये आवरण में छुप जाओ तो, क्षमा करना किन्तु, कोई
तुम्हें ढूँढना ही क्यूँ चाहेगा?

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जो एक स्त्री को समझ सके, वो जो बुद्धिजीवियों की आलोचना कर सके या सुलझा सके मौन के रहस्य की गुत्थी,
वो,वही इंसान है जो सुबह एक सुन्दर स्वप्न देख के जागे नाश्ते की मेज में बैठने के लिए.

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हमारे विचार किसी विशेष मत,व्यक्ति अथवा संस्था के प्रति झुके हुए और आरक्षित नहीं होने चाहिए. एक छिपकली की पूँछ और एक कवी की कृति, दोनों ही इसी एक जहान के प्रताप की देन हैं.

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उनकी प्रेरणा और कुछ नहीं, दरअसल, हमारे ह्रदय में अपनी कलम डुबाना ही थी.

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कविता कोई विचार नहीं, वो तो एक गीत है जो रिसते घावों से बह निकला, या एक हँसते चेहरे से.

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कविता ‘खुशी’ और ‘दर्द’ का कारोबार है, चुटकी भर शब्दकोष के साथ.

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मैंने एक लेखक मित्र से कहा, ”आपका महत्त्व आपकी मृत्यु तक नहीं पता लगना.”
लेखक बोले,”हाँ मृत्यु सदा से ही राज़ खोलती आई है. और अगर ऐसा हुआ कि आप
को मेरा महत्त्व मेरी मृत्यु के बाद लगा, तो संभवतः मेरे ह्रदय में उससे
कहीं अधिक था, जितना कि मेरी जुबां पर रहा. और मेरी इच्छाओं में उससे
कहीं अधिक था जितना कि मेरे हाथों में.”

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यदि आप, सहरा के एकांत में भी सौंदर्य-गीत गातें हैं तो आपको श्रोता मिल ही जायेगा.

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प्रेरणा हमेशा गायेगी, प्रेरणा व्याख्या नहीं करती.

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आपकी सोच ही आपकी कविता का ‘गतिरोधक’ है.

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एक महान गायक वो है जो हमारा मौन गुनगुना सके.

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आप गीत कैसे गा कैसे सकते हैं, जबकि आपके मुंह में तो गुड़ भरा है.
आप आशीर्वाद के लिए हाथ कैसे उठायेंगे अगर आपकी मुट्ठी में हीरे-जवाहरात हैं?

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हम सौंदर्य की खोज के वास्ते ही जीते हैं. बाकी सब इंतज़ार के ही रूप हैं.

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कई सारी स्त्रियाँ पुरुष का ह्रदय ‘उधार’ लेती हैं, किन्तु कुछ ही ‘अधिकार’ लेती हैं.

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यदि आप ‘इसका’ अधिकार रखते हैं तो दावा क्या करना ?

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जब पुरुष और स्त्री एक दूसरे का हाथ छूते हैं तो वे दोनों ही शाश्वतता का हृदय छूते हैं

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हर पुरुष दो स्त्रियों से प्रेम करता है, एक; जो उसकी कल्पनाओं की कृति है, दूसरी; अभी तक नहीं जन्मी.

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कितनी बार मैंने उन गलतियों का दोष भी अपने सर मढ़ा है जो कि मैंने की ही नहीं,लेकिन जिससे की अगला व्यक्ति मेरी उपस्थिति में, आरामदेह महसूस करे.

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यदि प्रेम चिर-नूतन नहीं तो आदत बन जाता है और अंततः गुलामी.

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प्रेम वो है जो दो के बीच है, न कि एक-दूसरे से.

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प्रेम प्रकाश का वो शब्द है, जो किरण के पन्नों में रोशनी के हाथों से लिखा हुआ है.

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दोस्ती एक मीठा उत्तरदायित्व है न कि अवसर.

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मेरा घर मुझसे कहता है,”मत जाओ, कि यहीं तो तुम्हारा सुनहरा अतीत है.”
और सड़क कहती है,”आ जाओ, कि मैं ही तुम्हारा भविष्य हूँ.”
और मैं, दोनों से ही कहता हूँ,”न तो मेरा कोई माज़ी है, न ही मेरा भविष्य."
यदि मैं यहाँ रुकूं, मेरे रुकने में ही मेरी गति है और यदि मैं वहाँ जाऊं, मेरे चलना ही मेरी जड़ता. केवल प्रेम और मृत्यु ही बदलाव लाते हैं.”
आश्चर्यजनक है कि खुशी की आकांशा ही मेरे दुखों का मूल है.


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यदि आप मित्र को सभी परिस्थितियों में नहीं समझ पाते तो आप कभी उसे नहीं समझ पायेंगे.

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तुम्हारा दिमाग और मेरा ह्रदय तब तक सहमत नहीं होंगे, जब तक कि तुम्हारा दिमाग ‘सांख्यिकी’ में और मेरा ह्रदय ‘धुंध’ में रहना न छोड़ दें.

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हम एक दूसरे को नहीं समझ पाएंगे जब तक कि हम भाषा को सात शब्दों तक सीमित न करे दें.

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जब आप सूरज से मुंह फेर लेते हैं, आप अपनी ही छाया देखते है.

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मेरे ह्रदय का बाँध कैसे खुलेगा, जब तक टूटेगा नहीं ?

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भेडिये ने भेड़ से अनुग्रहपूर्वक कहा,”क्या आप हमारे मेहमान बनकर हमें अनुग्रहित नहीं करना चाहेंगे ?”
भेड़ ने उत्तर दिया,”हम ज़रूर आपके घर आते यदि वो आपका पेट नहीं होता.”

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मैंने देहरी में ही मेहमान को रोककर कहा, ”नहीं जनाब ! मेहरबानी करके आते वक्त अपने पाँव मत धोइए, जब जाइयेगा तब ज़रूर धोइयेगा.”

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आप वाकई बहुत बड़े दानी हैं यदि देते वक्त आप अपना मुंह दूर फेर लेते हैं,जिससे की ग्रहण करने वाले को लज्जा का अनुभव न हो, और हो भी तो आप कम से कम उसे न देख पाएं.

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दुनिया के सबसे धनवान व्यक्ति और सबसे निर्धन के बीच में एक दिन की भूख और एक घंटे की प्यास भर का अंतर है.

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हम हमेशा आने वाले कल से उधार लेकर बीते हुए कल का उधार चुकाते हैं.

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मुझे भी देव और दानव मिलने आते हैं, पर मैं बड़ी आसानी से उनसे छुटकारा पा जाता हूँ.
जब देव आते हैं, मैं एक पुरानी प्रार्थना करने लगता हूँ.
और जब दानव आता है मैं एक पुराना अपराध कर देता हूँ. दोनों ही मुझे छोड़ के चल देते हैं.

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आप वास्तव में एक क्षमा देने वाला कहलाते हैं, यदि, आप क्षमा कर दें उस कातिल को जिसने खून की एक भी बूँद भी नहीं गिराई, आप क्षमा कर दें उस चोर को जिसने कभी चुराया नहीं और क्षमा कर दें उस झूठे को जिसने झूठ नहीं बोला.

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यदि आपका ह्रदय ज्वालामुखी है तो आप कैसे अपेक्षा रखते हैं कि आपके हाथों में एक फूल खिला रहेगा.

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जो आपकी कमीज़ से अपने गंदे हाथ पोछे तो उसे अपनी कमीज़ ले जाने दो,क्यूंकि उसे इसकी दोबारा आवश्यकता हो सकती है, आपको निश्चित ही नहीं.

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जो मुझसे कमतर हैं वही मुझसे घृणा एवं ईर्ष्या करते,
मुझसे कोई भी नफरत अथवा घृणा नहीं करता, मैं किसी से भी बढ़कर नहीं.
जो मुझसे बढ़कर हैं वही मेरा उत्साहवर्धन करते,
मेरा कभी भी उत्साहवर्धन नहीं हुआ, मैं किसी से भी कमतर नहीं.

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हम सभी कैद में हैं, लेकिन हम में से कुछ एक की कोठरियों में खिड़कियाँ हैं.

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यदि कभी हम एक दूसरे के सामने अपने अपराधों को स्वीकार करने लगे, तो हम
एक दूसरे के ऊपर हसेंगे,
कारण : मौलिकता का अभाव.
यदि कभी हम एक दूसरे के सामने अपने गुणों की बातें करने लगे, तो भी हम
एक दूसरे के ऊपर हसेंगे,
कारण : मौलिकता का अभाव.

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‘सरकार’ आपके और मेरे बीच एक संधि है. आप और मैं ज्यादातर गलत होते हैं.

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दूसरे की गलतियों को उकेरना क्या उससे भी ज्यादा बड़ी गलती नहीं कहलाई ?

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यदि ‘कोई दूसरा व्यक्ति’ आप पर हँसता है, तो आप उसपर दया कर सकते हैं.
(किन्तु) यदि आप उस पर हँसते हैं तो आप अपने को कभी क्षमा नहीं करे पाएंगे.
यदि ‘कोई दूसरा व्यक्ति’ आपको क्षति पहुंचाता है , तो आप उसपर दया कर सकते हैं.
(किन्तु) यदि आप उस को क्षति पहुंचाते है आप अपने को कभी क्षमा नहीं करे पाएंगे.
वास्तव में वो ‘कोई दूसरा व्यक्ति’ आपका ही सबसे सम्वेदनशील भाग है,बस शरीर आपसे अलग है.

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ये क़त्ल हो जाने वाले का सम्मान है की वो कातिल नहीं है.

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मानवता की आशा शांत मन में है, वाचाल दिमाग में नहीं.

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एक छात्र और एक लेखक में एक हरा मैदान है, छात्र उसे पार कर जाए तो वो एक बेहतर इंसान हो जाता है, लेखक उसे पार कर जाए पैगम्बर हो जाता है.

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हम अपनी खुशियाँ और क्षोभ का चुनाव उनका अनुभव करने से बहुत पहले करे लेते हैं.

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उदासी दो बगीचों के बीच कि दीवार है.

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यदि आपकी खुशियाँ अथवा आपके क्षोभ बड़े बन जाएँ तो दुनिया छोटी बन जाती है.

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जब आप अपनी ऊँचाई मैं पहुंच जाओ तो इच्छाओं कि इच्छा करो, भूख कि भूख हो और किसी और भी बड़ी प्यास कि प्यास हो.

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यदि मैं, दर्पण, आपके सामने खड़े हो जाऊं, और आप मुझसे कहें कि आप मुझसे प्रेम करते हो, तो आप उस खुद से प्रेम करते हो जिसका अक्स मुझमें है.

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आप उसे भूल सकते हो कि जिसके साथ आप हँसे, किन्तु उसे कैसे भूलोगे जिसके साथ रोये?

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नमक में कोई न कोई तो आश्चर्य जनक बात रही होगी, कोई रहस्य. वो हमारे आंसुओं में भी है और समुद्र में भी.

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अगर आप बादलों कि सवारी करें, आप देशों के बीच कोई सीमा रेखा नहीं पाएंगे, आप खेतों के बीच भी सीमाएं नहीं पाएंगे.
अफ़सोस कि आप बादलों में सवारी नहीं कर सकते .


Tuesday, February 14, 2012

पंच प्रेमधुन

     वेलेंटाइन डे मनाने या ना मनाने के आपके तमाम तर्क और ऐतराज हो सकते हैं, लेकिन अगर इसी बहाने कुछ प्यार मे ढली प्यारी धुने गुनगुनाने का इरादा हो तो फ़ितरतन ये शय बुरी नही! प्यार पे पड़ने, ना पड़ने, उससे बाहर निकल आने, फिर से उसी मे जा पड़ने की तमाम वजहें जिंदगी दे सकती है (और आप खुद को जस्टीफ़ाइ भी कर सकते हैं..हर बार) मगर प्रेम नामक इस रहस्यमय तत्व (जिसके गुणो-अवगुणो पर अनंत काल से निष्कर्षहीन वैज्ञानिक-दार्शनिक-सामाजिक अनुसंधान जारी हैं) को अपनी जिंदगी से स्थाई तौर पर बाहर कर पाना संभव नही होता है। क्योंकि हमारी आत्मा भी इसी तत्व से बनी हुई होगी शायद। खैर अगर ढाई अक्षर पढ़ने (और डाकिये की बकवास सुनने) का आपका इरादा ना भी हो तो भी संगीत की कोमल स्वर लहरियों के जादू से बच पाना नामुमकिन होता है। और यह एक ऐसी दुनिया का दरवाजा है जो दुनिया की सारी भाषाओं, भूगोल के परे जा कर खुलता है, अनुभूतियों के आँगन मे। फिर प्रेम भी तो एक अनुभूति है बस। तो भाषाओं और भूगोल की सरहदों से परे सुरों की सीढियाँ चढ़ते हुए इस मौके पर रूबरू होते हैं समंदर पार के कुछ क्लासिक और शुद्ध 24 कैरेट के रोमांस भरे गीतों से। वैसे तो कोई भी गीत बोलों के संग ही अपनी धुन और गायन की कमंद के सहारे आपके दिल मे उतरता जाता है, फिलहाल गानों के लिरिक्स के ’संक्षिप्त और चलताऊ’ भावानुवाद भी इस डाक के साथ मे नत्थी कर दिये गये हैं। रोमांस की यह संगीतमय पेशकश खासकर उन लोगों के लिये जो प्यार के सिर्फ़ सैद्धांतिक पक्ष पर यकीन रखते हैं (या रखने को मजबूर हैं)। ;-)


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    अल दी ला (ईटालियन): साठ के दशक के प्रसिद्धतम और गजब के रोमांटिक इस इतालवी गीत को यूं तो कई गायकों ने अपनी आवाज दी है. मगर एमिलिओ पेरिकोली के गाये इस वर्जन की बात जुदा है। पहले प्यार जैसी शुद्ध भावुक और आवेगपूर्ण गीत मे गुइलिओ रपेत्ती के लिखे हुए प्रेमिका की तारीफ़ मे शब्दों के खजाने खोल देने वाले बोल एमिलिओ की लोचदार आवाज के पंखों पर चढ़ कर आपको इस दुनिया से परे प्यार की एक दूसरी ही दुनिया मे ले जाते हैं। यह वर्जन (और वीडियो भी) फ़िल्म ’रोमन एडवेंचर’ का हिस्सा है, मगर गीत की लोकप्रियता कई दशकों के बावजूद अभी तक कायम है। वैसे इस गाने के कोनी फ़्रांकिस और बेट्टी कर्टिस वाले फ़ीमेल वर्जन भी कुछ कम लोकप्रिय नही। 

कभी यकीन नही था खुद पर
कि कह पाऊँगा तुमको ये बात:
दुनिया की सबसे अनमोल चीजों से भी परे, वहाँ हो तुम
सबसे महत्वाकाँक्षी सपनो से भी परे, वहाँ हो तुम
खूबसूरत से भी खूबसूरत चीजों से परे
सितारों से भी परे, वहाँ है तुम्हारी जगह
दुनिया की हर चीज से जुदा, वहाँ जहाँ तुम मेरी हो, हाँ सिर्फ़ मेरी
सबसे गहरे समंदरों से भी परे, वहाँ तुम हो
दुनिया की हदों से भी परे, वहाँ तुम्हारी जगह है
अनंत समय से परे, जिंदगी से परे
वहाँ जहाँ तुम हो, हर चीज से परे
वहाँ तुम हो मेरे लिये !


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   तू सेइ रोमांतिका (फ़्रेंच): अब अगली बारी प्रेमी की तारीफ़ की। दालिदा का नाम पिछली सदी के फ़्रांस की सबसे लोकप्रिय गायिकाओं मे से एक है। मूलतः इतालवी इस गीत का यह फ़्रांसीसी वर्जन है जिसे दालिदा ने अपनी अलहदा और खूबसूरत आवाज के पैमाने मे ढाल कर खासा नशीला बना दिया है। दालिदा भी वैसे तो इतालवी मूल की ही थीं मगर उन्होने दस से भी ऊपर भाषाओं मे गाने गाये। किसी शर्माये सकुचाये प्रेमी के मन की गिरहें खोलती प्रेमिका के दिल से छलकते प्यार का सोंधापन दालिदा की आवाज से भी छलका जाता है। वैसे इसका मूल इतालवी वर्जन डिनो वर्दे का लिखा और रोनातो रास्केल का गाया हुआ है।

तुम भी अजब हो, पर जाहिर नही होने देते
और कोई जान भी नही पाता है
अजीब हो तुम, तुम्हारी आँखों मे अगन नही दिखती
मगर तुम्हारे दिल मे छुपी है अगन

कितने रूमानी हो तुम, और आवारा
तुम नही करोगे कुबूल
मगर मै जानती हूँ
सब पता है मुझे
इतने रूमानी हो तुम, तभी मेरा दिल आता है तुम पर
कितनी उदास होती है तुम्हारी आंखें
जब हमारे आसमां का नीलापन होता है कम

बच्चे से खिलखिलाती हँसी या कि बहार का कोई फ़ूल
लकड़ियों मे जलती आग सा कोई गीत
दिल मे ही छुपा लेते हो प्यार
और मेरे सामने जाहिर नही होने देते
डरते हो कि मजाक न बने तुम्हारा
अपनी खुशियों को जाहिर नही होने देते
रखते हो खुद से भी छुपा कर

तुम हो इतने रूमानी कि मै तुम पर जान देती हूँ
तुम्हारे होने से मुझे जिंदगी एक खूबसूरत कविता सी लगती है

तुम छुपाते हो मगर पता है मुझे
तुम्हारे अक्स से बने होते हैं मेरे सब सपने
और जब मै देखती हूँ तुम्हे रूमानी और आवारा
मुझे तुम ही लगते हो वजह
मेरी सारी खुशियों की

कितने रूमानी हो तुम
रूमानी हो मेरे लिये


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   केरार इ अमॉर (स्पेनिश): यह मधुर गाना प्रसिद्ध मेक्सिकन गायक होसे होसे के सबसे लोकप्रिय गानों मे शुमार है। रोमांटिक गीतों के राजकुमार की उपाधि से नवाजे गये होसे बीसवी सदी के उत्तरार्ध के सबसे प्रसिद्ध लैटिन गायकों मे से माने जाते हैं। उनकी सौम्य और मोहक आवाज और कर्णप्रिय संगीत से सजा यह गीत प्यार को डिफ़ाइन करने की कोशिश करता है और सच्चे प्यार को हाइलाइट करने की भी। वैसे होसे के गाये रोमांटिक गाने दुनिया के हर कोने मे लोकप्रिय हुए हैं।

हर किसी को मालुम है लगभग
कि कैसे चाहा जाता है किसी को
मगर कुछ ही जानते हैं
कि कैसे किया जाता है प्रेम
एक बात नही है दोनो
चाहना और प्रेम करना
प्यार होता है दर्द, चाह होती है आनंद के लिये
प्यार होता है बढ़ते जाना आगे
निछावर कर दे्ना जीवन प्रेम मे
लालसा रखने वाला जिये जाना चाहता है जबकि,
नही चाहता पीड़ा भोगना
प्रेम मे सो्चा नही जाता कुछ, बस दे देना होता है अपना सब कुछ
कामना रखने वाला भूलना चाहता है सब
नही उठाना चाहता दुख
बहुत जल्द खत्म हो जाती है चाहत
जबकि प्रेम होता है अनंत

प्रेम है आकाश और प्रकाश
प्रेम सम्पूर्णता देता है
समंदर जिसका कोई किनारा नही
प्रेम है कीर्ति और अमन
लालसा है दैहिक, एक अंधे कोने की तलाश
लालसा है छुअन, चुंबन
लालसा है पल भर की आग

सबको आता है चाहना किसी को
किसी किसी को आता है प्रेम करना


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   बेबी इट्स कोल्ड आउटसाइड (इंग्लिश): इस कड़ी मे अगली पेशकश एक अमेरिकन युगल गीत है। फ़िल्म ’नेपच्यून’स डाटर’ के इस गीत को 1949 का आस्कर अवार्ड मिला था और यह गीत आस्कर विजेता लोकप्रियतम गीतों मे से शुमार किया जाता है। इसको जॉनी मर्सर और मार्गरेट व्हाइटिंग ने अपनी आवाज दी है। इस गीत मे टीन-एज प्रेम अपने सबसे आम और सहज रूप मे सामने आता है। यहाँ प्यार फ़ैंटेसी भर नही है बल्कि प्यार की कोमल मिठास भरे विलयन मे पिता, भाई, अम्मा, पडोसी और दुनिया भर की भी फ़्रिक्रें घुली हुई हैं। छेड़छाड़ और हलकी शरारत, नजाकत भरे बोलों मे जहाँ लड़के की अपनी प्रेमिका से कुछ देर और रुक जाने की प्यार भरी कामनामय मनुहार है तो लड़की के प्यार मे डूबे दिल और तमाम डरों से घिरे दिमाग के तमाम बहानों के बीच की कशमकश है। टिपिकल बालीवुडिया किस्म के प्रेम मे रचा हुआ यह गाना कितनी भी बार सुने आपको हर बार पहले से अच्छा ही लगता है। क्लासिक का दर्जा प्राप्त इस गाने को तमाम दूसरे कई गायकों ने भी अपनी आवाज दी है।


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   ला वियें इन रोज (फ़्रेंच): पोस्ट का आखिरी गाना पिछली सदी के सबसे रोमांटिक और पापुलर गानों मे से एक है। फ़्रेंच गायिका एदिथ पियाफ़ का यह गाना प्रेमधुन के धुनियों के लिये जरूरी खुराक है। सौ टके रोमांस मे डूबे बोलों को एडिथ की विशिष्ट आवाज की कालातीत स्पर्श और खासे नास्टाल्जिक म्यूजिक का साथ एक दैवीय फ़्लेवर देता है कि यह गीत फ़्रांस के सर्वकालिक लोकप्रिय गीतों मे ही नही बल्कि प्रेम की सर्वकालिक लोकप्रिय धुनों मे से एक माना जाता है।

आंखें जो निहारती हैं मुझमे
मुस्कराहट जो खो जाती है होठों पर
अछूती सी छवि है मेरे प्रियतम की
मै हूँ जिसकी

जब वो मुझे बाहों मे भरता है
और हौले से कुछ कहता है कानों मे
मुझे जिंदगी गुलाबों सी रंगीन दिखती है
उसकी प्रेम से पगी बातें
रोजमर्रा की बातें
जादू सा करती जाती है मुझ पर
खुशी से भरता जाता है मेरा दिल
और मै जानती जाती हूँ
कि वो मेरा है और मै उसकी, सारी उमर
उसने बोला है मुझे
जिंदगी भर के संग का वादा किया है मुझसे
मै अपने अंदर महसूसती हूँ
अपना दिल धड़कता हुआ

प्यार की अंतहीन रातों मे
एक खुशी छाती है धीरे-धीरे
और सारा दर्द, सारी चिंताएं गुम होती जाती हैं
खुशी खुशी मर सकते हैं प्रेम मे



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