Thursday, March 10, 2011

सूबेदारनी

कुमाऊंनी मासिक 'पहरू' के फरवरी अंक में प्रकाशित 'महेंद्र मटियानी' रचित  कहानी 'सूबेदारनी' का भावानुवाद श्री भगवान लाल साह द्वारा -भाग एक

हवालदार मेज़र चंदर अमर रहे, चंदर सिंह जिंदाबाद !! जब तक सूरज चाँद रहेगा - चंदर तेरा नाम रहेगा !!!
गगन गुंजायमान... धरती कम्पायमान कर देने वाली वो जय जय कार आज भी प्रातः कालीन हल्की हल्की ठण्ड जैसे पूरे शरीर में और चित्त में सरसरी कर रही है.
जब भी ज़रा एकांत मिला, सर तकिया में जैसे ही टिकाया आकाश के पंछी की परवाज़ सा मन फुर्र फुर्र वहीँ पहुँच जाता है...
आपकी संपूर्ण काया को झुरझुरी कर दे वो जय जय कार आज भी... बर्रss...
कभी जागरण की असहजता सा... कभी चौमास में गंगा के सुसाट (नदी की दूर से सुनाई देने वाली शान्त-आवाज़) सा...
कभी भंवरे की गुंजन सा... ढक जैसे देती है देह-काया को. चौमास की गंगा जैसे अरकान-फरकन (हिंडोले) पूरे सर से चित्त तक महसूस होती है... धरती से आकाश तक कैसे लौट लौट फ़िर आती थी वो आवाज़ चहुँ दिशाओं में...
..चंदर सिंह अमर रहे ! अमर रहे !! अमर रहे !!!

कलेजे के चीथड़े कर देने वाली अंतिम यात्रा में बड़ी सहायक हुई वो जय जय कार ! वाकई बहुत सहारा मिला... जले में फूंक मारे जैसे हुई वो... नहीं तो आकाश के साथ बिजली ही गिरी हो सर में, बड़ी मुश्किल से संभाला...
हृदय की हाहाकार ...आकाश का हेरना, पाताल का देखना किसके कहते हैं तभी जाना परमेश्वर ! तभी से जाना...

हवालदार मेज़र चंद अमर रहे ! अमर रहे !! हजारों लोगों की वो जय जयकार नहीं फूटती तो कहाँ सह सकते बूढ़े सास ससुर? आखिर प्राण के दो-फाड़ कर देती है वो बिन बादल की बिजली ! "बहू तेरे सर का ताज छूट गया... हमारे बुढ़िया-काल की लाठी छूट गयी. अपने कर्म अपने संग बहू ! भाग्य का लिखा कौन मिटा सकता है? कोई भी नहीं बहू... कोई भी नहीं... यही लिखा के लाये होंगे हम. हाथ की रेखाओं में ऐसी ही आग लागी होगी. दो आँखों की एक ज्योति थी... वो भी नहीं रखी... परमेश्वर !
हमारा कोई कसूर होगा... पिछले जन्म के पाप शायद.... मौत ऐसी भी होती है क्या? दुनियाँ, क्या देख गया मेरा लाल... देख गया..."

जाने कौनसे दूसरे लोक से बोल रहे थे ससुर जी... "चंदर की माँ. मेरे वंश और तेरी कोख को धन्य धन्य कहलाने लायक कर गया री ! चंदर... मरने को तो दुनिया मरती है.कब आए , कहाँ गए कुच्छ पता नहीं चलता! फ़िर ! और एक तेरा बेटा जा रहा है... जुग-जुगांतर रहने वाली छाप छोड़ के..."

कैसा लाल-तमतम(रक्तिम) हो रहा था ससुर जी का मुख," बहू ! चंदर तुझे गृहस्थी की बीच मजधार में ज़रूर छोड़ के गया, सर का सिन्दूर तेरा ज़रूर पोछ गया, लेकिन फ़िर, चाँद-सूरज के साथ रहने वाला काम भी कर गया... गाँव घर में जहाँ भी जाएगी बहू, अच्छे अच्छे सुहागिनों से ऊँचा रहेगा तेरा सर ! बिना बिंदी सिन्दूर के भी... ! इतनी बड़ी मौत को आंसू से बहा के तुच्छ न बना... चंदर मरा नहीं, अमर हो गया... ये मैं नहीं सारी दुनिया कह रही है..."

मर्दों की मर्द निकली मेरी सास भी. उस छाती को भी धन्य धन्य ! कैसे हूंकार मारती थी, " चुप बहू ! एक नेत्र मत बहाना.. एक आंसू मत गिराना... नहीं तो जान लेना हाँ, कहे देती हूँ ! ये आंसू अब चंदर की धरोहर है हमारी आँखों में ... इनको मोती जैसे संभाल के रख.. संभाल के. खबरदार ! जो इन मोतियों को माटी में मिलाया."

ननद को तो भूत झाड़ते है वैसे झाड़ (डांठ) दिया,"खबरदार गोबिंदी... ! रोना ही है तो मेरी देहरी से बाहर जाकर रो... मैं भी जानती हूँ तुझ पर जो बीत रही है. पीठ-पीछे सा भाई हुई तेरा (ऐसा भाई जो तुझको हमेशा पीठ में पीछे लादकर रखता था.). बड़े बड़े होने तक भी तुम उसकी गोद में ही रहती थी... अपने मुंह का ग्रास भी उसके मुंह में डाल देती थी तू भी... फ़िर ! तेरी पीठ का आधार चले गया अभागी. पहले बहू का और देवेन्द्र का मुंह देख ले फ़िर रोना. खाली दहाड़-दहाड़ के इनका कलेजा मत झझकोर."

गोबिंदी के पति और ससुर समेत वहाँ मौजूद सब बड़े-छोटे उनको देखे रह गए,"...बिस्तर में पड़े पड़े बीमारी से नहीं मरा मेरा चंदर... पहाड़ों से गिरकर, नहर में बहकर नहीं मरा, बाघ--भालू के दांतों में भी नहीं लगा... शहीद हुआ कहते हैं... शहीद ! इसकी माटी को आंसुओ से नहीं फूलों से सजाओ. फूलों से..."

कर्नल साहब भी कर रहे थे सुना,"तो इस शेरनी का दूध पिया था चंदर सिंह ने? ऐसी होती है राजपूतनी. मैं तो शहीद से पहले इस शेरनी को सैल्यूट करता हूँ."

जाने कहाँ कहाँ से एकजुट हो गए उतने आदमी? आस पास के दस-बीस गाँव के लोग से लेकर अपर, मिडिल इस्कूल के मास्टर और छात्र तो थे ही, सात मील दूर से इंटर के मास्टर और छात्र भी पहुंचे थे सब... बच्चे भी... बाज़ार से भी डी.एम., एस.डी.ऍम., एस. पी., तहसीलदार, कर्नल साहब, मेजर साहब, फौज की एक पलटन, एम. पी साहब, अमेले साहब और जाने कहाँ कहाँ से छोटे बड़े साहब...


महादेव जी के मंदिर में मेले में भी वैसी भीड़ कभी नहीं देखी. न आब देखा ! ए हो... सबके मुंह से बस एक ही बात... एक ही बाणी... धन्य है ये गाँव, धन्य है हवालदार मेज़र के माँ-बाप, धन्य है चंदर सिंह की हवलदारनी, धन्य है उसका सपूत. तिरंगे में सजाया उसका मृत शरीर भी प्रेत सा कहाँ लगता था, ऐसा ही लगता मानो अभी झट से उठकर तिरंगे को सैल्यूट मारेगा... ठ-ड़ा-क !
हवालदार के माथे तिरंगा और तिरंगे में हवालदार ऐसा दिख रहा था मानो, दोनों एक दूसरे के लिए ही बने हों.
एक दूसरे की मान मर्यादा के पहरू एक दूसरे के काम भी आए फ़िर हो !

जिस दिन देखने के लिए आए थे हवलदार, 'लांस नायक' थे तब. उस दिन से लेकर आज तक कि बात रीठे के दाने जैसी घूमती है आँखों में...
चार लोग आए थे देखने. ब्रह्मण भी था एक. थोड़ी देर इधर उधर की बात करके अपने जीजा और पंडित को किनारे ले जा के खुद ही बोले,"टीका(शगुन) भी आज ही कर दो."
छुट्टियाँ भी कम ही रहती थीं. हबड़-ताबड़ में शादी हुई... टीके के पंद्रह दिन बाद. शादी के बाद शायद बीस इक्कीस दिन की छुट्टी बची थी कुल. उजले (सुख के) चिडयों से दिन जहाँ उड़ते होंगे? टीका लगे से ब्याह होना और ब्याह होने से इनका छुट्टी से वापिस जाना ..पलक झपकना हुआ !
एक हफ्ता तो शादी-बारात और मेहमानों को निपटाने में लग गया. तीन दिन दुर्गुण (कुमाऊँ की शादियों के रीति में बहू मायके जाके दोबारा वापिस आती है) में.
शादी के बाद पूरी छुट्टी भर फुलवारी के भँवरे जैसे ऐसे डोलते थे मेरे चारों ओर कि मैं ही शर्म से मर जाने वाली हुई. मैं खेत जाऊं खेत ! मैं पानी भरने जाऊं अपना भी पानी भरने !
रात को काम निबटा के कमरे में पहुंचने में ज़रा देर हुई दस चक्कर बाहर-भीतर ! पानी से बाहर निकाली गयी मछली से तड़पने वाले हुए मेरे बगैर.
सहेलियां कैसे ठिठोली करने वाली हुई ? "कम्मो के अंग अंग में भी जाने कैसे सरसों उगी है? कैसा गुलाब छाया हुआ है कि चनर सिंह भोरों जैसा घूमता रहता है चारों तरफ़. कमुली खेत से घर को रास्ता लगी नहीं कि घर बैठे ही चनर सिंह देह-गंध महसूस लेते हैं." एक से एक ठिठोली बाज़ , एक से एक बेशर्म , सहेलियां भी तो !
'देवेन्द्र की माँ' तो मैं लड़के के नामकरण के बाद हुई. उससे पहले नाम लेकर बुलाते थे हमेशा.
शादी के पहले-पहल तो सास-ससुर जी के सामने सर उठाना भी मुश्किल. घीसे हुए रिकोर्ड जैसे एक ही रटंत कमला... कमला... कमला...
फ़िर थोड़ी देर आवाज़ नहीं लगायेंगे 'झस्स' (झुरझुरी) जैसी भी होने वाली हुई, कहीं नाराज़ तो नहीं हो गए? दोस्त लोग अकिस मज़ाक बनाते थे?,"कमुली का रंगरूट दिन भर परेड करने मैं ही रहता है... कमला ! लेफ्ट राईट !! कमला ! लेफ्ट राईट !! " कितनी शर्म लगने वाली हुई उस वक्त. फ़िर शर्म जितनी भी लगे... अच्छा भी उतना ही लगता था. दिल में गुदगुदी सी. वहाँ उनके मुख से कमला... यहाँ कानो में मिश्री सी घुले ! छूते थे तो पूरे अंग में बिजली बररर....
सास ससुर की नज़रें बचा बचा के कैसे इशारे कर देते थे... नहीं होने जैसे भी ! एक दिन गोबिंदी जी की नज़र पड़ गयी... कहाँ जाऊं... कहाँ छुपूं ... हो गयी मुझे. जन्म जन्म की ऐसी प्रीत रखने वाले तुमने माया का धागा तोड़ के चले जाने में दो पल नहीं लगाये हवलदार?
-क्रमशः 

Major Som Nath Sharma (1923–1947) 






चलते चलते 


राग:श्याम कल्याण, ताल:चांचर में लयबद्ध अल्मोड़े की  बैठक -होली....


मोहन मन लीनो बंसी नागिन सों
मुरली नागिन सों
केही विधी फाग रचायो .
ब्रिज बांवरो मोसे बांवरी कहत है,
अब हम जानी बांवरो भयो नंदलाल.
केही विधी फाग रचायो.
मीरा के प्रभु गिरधर नागर,
कहत 'गुमानी' अन्त तेरो नहीं पायो.
केही विधी फाग रचायो.
यो होरी -'रंग डार दियो अलबेली मैं.'


-गुमानी पन्त जी की पुस्तक 'रंग डार दियो अलबेली मैं.' से साभार. (संपादक: गिरीश तिवारी 'गिर्दा')

3 comments:

  1. फिर??
    कहानी में आगे क्या हुआ ठहरा??

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  2. कहानी के लिए धन्यवाद हो गुरु. पर जरा यो मासिक पत्रिका 'पहरु' का कोई लिंक या प्रकाशक का पता इत्यादि दे देते तो ठीक जैसा हो जाता फिर ....

    pandeydeep72@gmail.com

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  3. आपकी देर-आमद और इस कहानी को यहाँ पढ़ना एक उखद अहसास है..और कहानी की पहली किश्त ही खुद मे डुबा लेने मे सक्षम है..एक रेगुलर से नोट पर शुरू हो कर उत्तरार्ध मे जिस तरह कहानी बिखरे हुए दिल की दरारों से रिसती जिंदगी तो जितनी तफ़सील से टटोलने लगी है..कि पाठक भी सुबेदारनी के दर्द मे शिद्दत से शरीक हो जाता है..विशेषकर हिंदी रूपांतर की तारीफ़ करूंगा..जिस तरह भाषा का लिहाफ़ बदलते हुए उसकी आत्मा को अछूता बचा लिया गया है..और बरकरार फ़्लो के साथ..कि पढ़ते हुए लगातार हमें पता रहता है कि एक कुमाउंनी कहानी पढ़ रहे हैं..वह इस कहानी की विशेषता हुई ठहरी..

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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