रोज़ बढ़ता हूँ जहाँ से आगे
फिर वहीं लौट के आ जाता हूँ
बारहा तोड़ चुका हूँ जिन को
इन्हीं दीवारों से टकराता हूँ
रोज़ बसते हैं कई शहर नये
रोज़ धरती में समा जाते हैं
ज़लज़लों में थी ज़रा सी गर्मी
वो भी अब रोज़ ही आ जाते हैं
जिस्म से रूह तलक रेत ही रेत
न कहीं धूप न साया न सराब
कितने अरमाँ है किस सहरा में
कौन रखता है मज़ारों का हिसाब
नब्ज़ बुझती भी भड़कती भी है
दिल को मामूल है घबराना भी
रात अँधेरे ने अँधेरे से कहा
इक आदत है जिये जाना भी
क़ौस एक रंग की होती है तुलू'अ
एक ही चाल भी पैमाने की
गोशे गोशे में खड़ी है मस्जिद
मुश्किल क्या हो गई मयख़ाने की
कोई कहता था समंदर हूँ मैं
और मेरी जेब में क़तरा भी नहीं
ख़ैरियत अपनी लिखा करता हूँ
अब तो तक़दीर में ख़तरा भी नहीं
अपने हाथों को पढ़ा करता हूँ
कभी क़ुरान कभी गीता की तरह
चंद रेखाओं में सीमाओं में
ज़िन्दगी क़ैद है सीता की तरह
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं
काश रावन ही कोई आ जाता
- कैफ़ी आज़मी
वाह !!! बैरंग के डाकिये काफ़ी सक्रिय हो गये हैं त्यौहार के आते ही :)
ReplyDeleteकैफ़ी साहब की ये नज़्म पहले भी पढ़ी है पर जितनी बार भी पढ़ो दिल को उतनी ही छू जाती है... शुक्रिया डाकिया बाबू इसे फिर से पढ़वाने का..
कैफ़ी साहब की बात चली है तो उन्होंने सोमनाथ के मंदिर पर भी एक नज़्म लिखी थी, वो शेयर कर रही हूँ यहाँ...
बुत-शिकन कोई कहीं से भी ना आने पाये
हमने कुछ बुत अभी सीने में सजा रखे हैं
अपनी यादों में बसा रखे हैं
दिल पे यह सोच के पथराव करो दीवानों
कि जहाँ हमने सनम अपने छुपा रखे हैं
वहीं गज़नी के खुदा रखे हैं
बुत जो टूटे तो किसी तरह बना लेंगे उन्हें
टुकड़े टुकड़े सही दामन में उठा लेंगे उन्हें
फिर से उजड़े हुये सीने में सजा लेंगे उन्हें
गर ख़ुदा टूटेगा हम तो न बना पायेंगे
उसके बिखरे हुये टुकड़े न उठा पायेंगे
तुम उठा लो तो उठा लो शायद
तुम बना लो तो बना लो शायद
तुम बनाओ तो ख़ुदा जाने बनाओ कैसा
अपने जैसा ही बनाया तो क़यामत होगी
प्यार होगा न ज़माने में मुहब्बत होगी
दुश्मनी होगी अदावत होगी
हम से उसकी न इबादत होगी
वहशत-ए-बुत-शिकनी देख के हैरां हूँ मैं
बुत-परस्ती मेरा शेवा है कि इन्सां हूँ मैं
इक न इक बुत तो हर इक दिल में छिपा होता है
उस के सौ नामों में इक नाम ख़ुदा होता है
..बढ़िया।
ReplyDeleteअब राम सदा के लिए निर्वासित हो गए है .....रावणों के तो खैर कई क्लोन है.....रोज नए मिलते है
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