Sunday, March 13, 2011

सूबेदारनी

...गतांक से जारी.
कुमाऊंनी मासिक 'पहरू' के फरवरी अंक में प्रकाशित 'महेंद्र मटियानी' रचित कहानी 'सूबेदारनी' का भावानुवाद श्री भगवान लाल साह द्वारा -भाग तीन

इनके दोस्त बताते थे कि ब्याह के बाद चन्दर सिंह ने न दिन देखी न रात. खेलते वक्त तो जाने जान ही लगा देते थे. फुटबॉल पहले से कहाँ खेलते थे.. फ़िर ब्याह के बाद ऑफ टाईम में भी दो तीन घंटे फुटबॉल की प्रैक्टिस करते थे कहते हैं उनके साथी. फुटबॉल में जीते कप-मैडल कैसे सज़ा के रखे रहते थे हमारे कमरे में? कहते भी थे," कमला, ये फुटबॉल के नहीं प्रमोशन के मैडल हैं." यूनिट में जो काम होगा सब चंदर सिंह करेगा. एक एक बाद एक छोटे बड़े इम्तिहान भी... ज़ल्दी पास किये... अपने साथियों में सबसे पहले हवालदार लिया...
हवालदार की एक एक तरक्की मेरे सर में ताज रख देती थी. मुझे लगता था अब बनी मैं सूबेदारनी... अब बनी. हर तरक्की में एक साड़ी अलग जो क्या लाते थे, कि ये मेरे प्रमोशन का गिफ्ट है... फ़िर मैंने भी प्रण जैसा कर के रख दी, संभाल के... कि प्रमोशन के गिफ्ट कि साड़ी तभी पहनूंगी जब सूबेदारनी बनूंगी. मुझे ज़ल्दी हुई ज़ल्दी सूबेदारनी बनने को... उन्होंने अपने सामर्थ्य का सबकुछ किया...
काठ का पैर, लोहे का कपाल करके किया... ...फ़िर परमेश्वर मेरा काला चरयो (मंगल सूत्र) पत्थर में रहना था, तो रह गया...
...ए हो ! हवालदार से झूठ थोड़ी न कहा ठहरा मैंने, सूबेदारनी बनना मेरा मेरे प्राण की अभिलाषा है. सूबेदारनी बड़ी-माँ (माँ की बड़ी बहन को कुमाऊं में बड़ी-माँ कहते हैं.) के ठाठ-बाट देख कर ये हौसला कब बड़े-पीपल के जड़ जैसा हो गया मन में मुझे भी ठीक ठीक याद नहीं. मेरे बड़े-पापा बहुत साल रहे फौज में सूबेदार. मेरी बड़ी-माँ से सब 'सूबेदारनी' कहने वाले हुए खुद बड़े-पापा भी. सब आदमी-औरतों में अलग ठाठ थे उनके. देवरानियों-जेठानियों में भी भेंट होगी तो हाथ भर उंचा महसूस होता था. सारे गाँव भर की औरतों में बिल्कुल एक अलग जैसे ठसक हुई उनकी. उनसे डरने वाले भी हुए सब थोड़ी थोड़ी, बहुत मान भरम हुआ उनका आदमी-औरतों सब में. उठना-बैठना, खाना-पीना, लगाना-पहनना सब में एक अलग इस्टाइल हुई उनकी. खाने को भी बैठेंगी तो मानो अफसर-मेस में बैठे रहने वाली हुई ... चार पाँच साल पलटन में भी रही उनके साथ... वहाँ की ऐसी ऐसी बात बताने वाली हुई कि आदमी सुनते ही रह जाए.
दो-तीन बार बड़ी-माँ के साथ मैं भी उनके मायके भी गयी थी. मालाकोट वाले भी बड़ा रोब मानते थे उनका. आमा-बुज्यू (नाना-नानी) भी 'सूबेदारनी-लड़की' कहने वाले हुए. मालाकोट में भी वो 'सूबेदारनी-मौसी','सूबेदारनी-दीदी','सूबेदारनी-बहन'... हुई सबकी.
उनको देख के बच्चों में भी एक उम्मीद जड़ ज़माने वाली हुई "कभी मैं भी सूबेदारनी बनूँगी?" सिर्फ मैं ही नहीं... उनको देख के मेरे और साथी भी सोचने वाले हुए ऐसा. बचपन में एक दूसरे से बात करने वाले हुए कि हम भी सूबेदारनी बनेंगी... जसुली दीदी हमारी कैसी मज़ाक उड़ाती थी इस्कूल आते जाते वक्त,"ए लडकियों ! हम सूबेदार हैं... तुम सब हमारी सूबेदारनियाँ हों... चलो एक लाइन से फौलेन होकर चलो... लेफ्ट..राईट..लेफ्ट..राईट."
जैसे-जैसे ब्याह की उम्र नज़दीक आने वाली हुई ये अभिलाषा और गहरी-गहरी होती गयी. इतनी गहरी कि जब टीका हुआ तब ब्याह होने से ज़्यादा ख़ुशी इस बात कि हुई कि मैं भी सूबेदारनी बन सकूंगी. पलटन वाले के साथ ब्याह क्या पक्का हुआ,टीका लगने के बाद अपनी को सूबेदारनी समझने लग गयी. जब भी हवालदार की सूरत आँखों में घूमती तब-तब कन्धों में दो फुल्ली चमकती हुई दिखने वाली वाली हुई. हो गया कहा ! अबकी छुट्टी में कह रहे थे,"देवेन्द्र की इजा, अब तेरा सूबेदारनी बनने का टाईम नज़दीक समझ... इष्ट देव हों, कुल देवी के आँचल की छाया, बालों की ओट कर देगी तो अगले साल छुट्टी में तेरा चंदर नायब-सूबेदार बन के आएगा.... एक बार नायब-सूबेदार मिलना चाहिए, फ़िर सूबेदार बनने से कोई नहीं रोक सकता मुझे... भगवान चलाये, अगले साल की छुट्टियों में वापिस विद फॅमिली जाऊँगा.
नीद में परलोक पहुंचे देवेन्द्र, सरक के और नज़दीक आ गया था मेरे. "देवेन्द्र की माँ ! मेरा परमेश्वर जानता है, तुझे सूबेदारनी बनाने का वचन क़र्ज़ जैसा नहीं लादा होता मैंने तो आज मैं शायद नायक होता या लांस नायक भी जाने. ये तेरी वाणी का प्रताप है जिसने इतनी जल्दी जल्दी तरक्की करके हवालदार-मेजरी तक पहुंचा दिया तेरे चंदर को. इस्कूल की टीम में फुटबॉल खेलना भी बहुत काम आया समय पर..." पानी जैसे बहने लगे, बस तू भगवान से हाथ जोड़ के विनती करते रह. तेरी प्रार्थना का असर ज़रूर होगा... तो दो बकरियां ले कर पालना शुरू कर दे... जब भी इष्ट देव की कृपा होगी,तो बधाई देने को तैयार हो रहेंगे.
-क्रमशः

An old kumaoni man waiting for his son (Photo courtesy: Threesh Kapoor.


चलते चलते 


जन्म: २० मई, १९०० ई.
निधन: २८ दिसम्बर,१९७७
मूल निवास: स्यूनारकोट, अल्मोड़ा
रचना: वीणा, ग्रंथि, पल्लव, गुंजन, युगांत, युगवाणी, ग्राम्या, चिदंबरा, लोकायतन (महाकाव्य), ज्योत्सना (नाटक), हार(उपन्यास), कुमाँऊनी में एक मात्र कविता:



बुरुंश



सार जंगल में तवी ज क्वे नहाँ रे क्वे नहाँ,
फूलन छे के बुरुंश जंगल जस जली जाँ.
सल्ल छ, दयार छ पईं छ, अंयार छ,
सबनाक फागन में पुग्नक भार छ,
पे त्वी में ज्वानिक फाग छ,
रगन में तयार ल्वे छ, प्यारक खुमार छ.
-सुमित्रानंदन पन्त.

सारे जंगल में तेरे जैसा कोई नहीं रे कोई नहीं, फूलों से कहा बुरुंश जंगल जैसे जल जाता है, सल्ल है, देवदार है, पइयां है, अंयार है (पेड़ों कि किस्में) सबके फाग में पीठ का भार है, फ़िर तुझमें जवानी का फाग है, रगों में तेरे लौ है, प्यार का खुमार है. (बुरुंश कुमाऊं का एक जंगली पेड़ जिसमें रक्तिम पुष्प पल्लवित होते हैं.)

5 comments:

  1. aglee kadi ka intizaar...

    jai baba banaras....

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  2. कहानी आगे कब आने वाली हुई ? और बूढ़े बाप की बेटे के इंतज़ार में तस्वीर पर कुछ भी कहना कम ही होगा करके.ये मिली कहाँ से?

    PS :सप्ताहिक मनी आर्डर मिल गया ठहरा..:)

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  3. आपका ब्लॉग पसंद आया....इस उम्मीद में की आगे भी ऐसे ही रचनाये पड़ने को मिलेंगी कभी फुर्सत मिले तो नाचीज़ की दहलीज़ पर भी आयें-
    http://vangaydinesh.blogspot.com/2011/03/blog-post_12.html

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    All movement organizations of Pune recorded with us have their own particular vehicle for transportation of your profitable products. This makes it considerably snappier, incite and bother free.
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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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