Sunday, March 20, 2011

सूबेदारनी

...गतांक से जारी.
कुमाऊंनी मासिक 'पहरू' के फरवरी अंक में प्रकाशित 'महेंद्र मटियानी' रचित कहानी 'सूबेदारनी' का भावानुवाद श्री भगवान लाल साह द्वारा - अंतिम भाग


उनकी छुट्टी से वापिस जाने के बाद भी उनका कहना शरीर के अन्दर तक गुदा हुआ जैसा हो गया था... सूबेदारनी बनने की जल्दी सरसराने वाली हुई सारे अंग में, चेतना को भी दबा देने वाली हुई हो ! वो सरसराहट ... होश हवास सब गुम जैसे हो जाने वाले हुए.
फ़िर हो... सास ससुर हर छुट्टी में कहने वाले हुए... जोर भी देने वाले हुए... खासकर देवेन्द्र के हुए से पहले.."बच्चे! इस बहू को भी साल-छह महीने अपने साथ घुमा लाता? इसके साथ की दो-दो, तीन-तीन बार पलटन घूम के आ गयीं हैं... इसका भी मन करता होगा... हमारे हाथ पैर आज भी चलने फिरने वाले हैं... यहाँ की तू फिकर मत कर ! सास तो , "जब तक ये ठेकेदारनी की लड़की नहीं आई थी हमारा काम नहीं चलता था क्या?" भी कह देने वाली हुई. फ़िर 'वो' कोई न कोई बहाना बना के टालते रहे. सिर्फ मुझसे ज़रूर कहते थे,"इजा-बोज्यू को कहने दे. तुझको साथ ले जाऊंगा तो जे. सी. ओ. क्वार्टर में ही-ये मेरा भी प्रण है."
परमेश्वर ! मेरे लिए तो मेरी ज़िन्दगी ही आग लग गयी, कहाँ जे. सी. ओ. फैमली क्वार्टर? सब क्वार्टरों के द्वार ढक गए मेरे लिए परमेश्वर ! सब क्वार्टरों के... ! बच्चे की नींद न टूट जाए, कमुली ने अपना 'रोना' भीतर-भीतर ही दबा दिया.

"हवालदार मेजर चंदर सिंह कारगिल में शहीद" कलेजे को नोच लेने वाली उस खबर की बिजली गिरे चार महीने हो जाते हैं अब. अपर इस्कूल के हेड मास्टर साब ने जब दस बातें इधर उधर की कर के अखबार दिखाया तो चार अक्षर ही दिखने वाले हुए अखबार में-'हवालदार मेजर चंदर सिंह कारगिल में शहीद'. ए हो ! छपे हुए अक्षर भी कैसे यम दूत जैसे खड़े हो जाते हैं सामने में... अक्षरों में भी पूरी चेतना को बहा ले जाने की सामर्थ्य हुई क्या उसी दिन जाना... अक्षर जैसे राक्षश के खून से रंगे दांत... पूरी सृष्टि में महाकाल का हाहाकार हो गया... भादो की अमावस्या का जैसा अन्धकार झप्प छूटा जैसे आकाश से. सूरज की किरणों से अन्धकार बहना उसी दिन देखा... उसी दिन महसूस किया. कण कण सी आँखों में मन-मन के नेत्र उसी दिन से बहने शुरू हुए...
एक डेढ़ महीने तक दुनिया भर का मेला जैसा लगा रहता था. आज ये आ रहे हैं... काल वो आ रहे हैं, इसी में रह पड़े... महीने दो महीने तक तो पर्वत की हवा और गंगा की धारा भी "हवालदार मेजर चंदर अमर रहे" कहती बहीं... सूरज की रोशनी और चाँद की चांदनी "चंदर तेरा यह बलिदान..." कह के ऊऋण हुईं. हवलदार की लाश आए के बाद उनकी अर्थी उठे तक की वो जै-जै (जय-जय) कार आज भी कानों से प्राणों तक गुंजायमान होती रहती है. बस एक कसक हृदय में कठफोड़वे की तरह टकोर मारती रहती है... अब मुझे सूबेदारनी कहो...
साथी-संगीनें कहती हैं हवालदार की लाश पर भी एक ही रोना था मेरा,".. अब मुझे सूबेदारनी कौन बनाएगा? मुझे सूबेदारनी बनाए बिना कहाँ जा रहे हो?"

तीन दिन हो गए उनकी पलटन के सूबेदार रतन सिंह आए हुए थे. बहुत देर तक हवालदार की बातों में ही लगे रहे. सारी दुनिया का उदेग (नैराश्य) जैसे कन्धों में बोझ सा उठा के लाये होंगे... हारे जुआरी जैसे थके-उदास-पिटे... कह रहे थे ससुर जी से,"काका ! चंदर मुझसे कहता था, मेरा कोई दादा (बड़ा भाई) नहीं है रतन दा' फ़िर तुम्हारे मिलने के बाद वो कमी भी पूरी हो गयी.. काका, मेरी तकदीर भी देखो ! आज पहली बार चंदर की देहरी आया भी तो रतन दा, आओ भेटों कहने के लिए भी नही रह गया." प्राणों को चीथड़े कर देने वाली टकटकी लगाने वाले हुए सूबेदार,"बहू, तीन चार दिनों में नायब सूबेदार मिलने वाला था चंदर सिंह को... नायब सूबेदार मिलते ही छुट्टी में आने का प्रोग्राम था उसका.. मुझसे कह रहा था कि घर वालों को भी नहीं बता रखा.बस कंधे में स्टार लगा के धम्म करके खड़ा हो जाना है सूबेदारनी के मुह के सामने.. कहता था, रतन दा ! आज तक मैं कभी वर्दी में घर नहीं गया, न वर्दी में फोटो दी घर वालों को. एक ही प्रण है की आपकी बहू के सामने वर्दी में जाऊँगा तो कन्धों में स्टार लगा के... अब वर्दी में घर जाने का मुहर्त आ रहा है दाज्यू(बड़े भाई). तुम्हारे आशीर्वाद और इष्ट की महर से. कहते कहते जाने- कितने जन्मों का रोना एक क्षण में डाल दिया रतन सिंह ने "... फ़िर क्या कहा जाए बहू कर्मों का?" आगे को आवाज़ ही नहीं रही मुंह में.
क्या कह रहे होंगे रतन सिंह भी? धोती(महिला  द्वारा घर में पहनने वाली साड़ी को कुमाउनी में धोती कहते हैं.) को मुंह में दबा के भागी भीतर को मैं.. भीतर का रोना धरती-आकाश के अंदर  से जैसा फूटा भीतर भगवान के थान (घर में बना छोटा मंदिर) में पहुंच कर... परमेश्वर ! मेरा न ये लोक रहा, न परलोक... मेरा सत धर्म तो नहीं बिगाड़ते परमेश्वर ! सत धर्म तो रहने देते... ऐसा क्या बिगाड़ा था मैंने किसी का... मेरे लिए तो भगवान ! विधवा होने का रोना नहीं रह गया और सत धरम जाने का संताप बड़ा हो गया...
हवालदार कौनसे जन्म का बैर निभा/चुकता कर गए होंगे? मेरा सत धर्म बिगाड़ कर... हे विधाता? ब्याह तो किया मैंने सूबेदार चंदर सिंह के साथ और विधवा ठहरी मैं हवलदार मेजर चंदर की... तुमने मुझे कहीं का नहीं रख छोड़ा परमेश्वर. ये पाप का बोझा लेकर कहाँ जो मरुँ मैं... कहाँ जो मरुँ...
कम हो रहा ठहरा कहने को अन्वार(देवेन्द्र के लिए) भी रख दिया कोख में, कि ताल-खाई में कूद कर इस पाप लोक से मुक्ति पाना भी मुश्किल कर दिया... हे परमेश्वर... हे विधाता... हे भगवान.. में कहाँ जो मरुँ?
..मेरा प्रायश्चित कैसे होग?



चलते चलते


बेडू पाको बारो मासा...
काफल 

बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला,
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

          

भुण भुण दीन आयो,  नरण बुझ तेरी मैता मेरी छैला,
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

आप खांछे पन सुपारी , नरण मैं भी लूँ छ बीडी मेरी छैला,
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

अल्मोडा की नंदा देवी, नरण फुल चड़ूनि पाती मेरी छैला
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

त्यार खुटा मा कांटो बुड्या, नरणा मेरी खुटी पीडा मेरी छैला
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

अल्मोडा को लल्ल बजार, नरणा लल्ल मटा की सीढी मेरी छैला
बेडु पाको बारो मासा, ओ नरण काफल पाको चैता मेरी छैला.

4 comments:

  1. दिलचस्प....दो चार और कहानी बांटो यार.....गर उस लेखक की हो तो( जो खो गया है....लापता अवसाद के कारण ...).

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  2. कहानी का अंतिम भाग सच इतनी प्रतीक्षा डिजर्व करता था..कहानी का भावात्मक पक्ष हर कड़ी मे किसी कमान की तरह चढ़ता जाता रहा कि आखिर तक आते-आते डोर टूटने जैसा महसूस हुआ..कहानी मे हवलदारनी और सुबेदारनी के बीच के द्वंद को लेखन ने इतने मर्मस्पर्शी तरीके से व्यक्त किया है कि अंत का आर्तनाद नीरव सन्नाटे मे स्पष्ट सुनायी देता है..पारंपरिक भावुकता मे फ़ँसे बिना कमला के अंतर्द्वंद का यथार्थपरक चित्रण कहानी को और सशक्त और प्रभावी बना देता है..
    अनुवाद ’अंततः’ पूरा कर लेने पर आप भी बधाई के पात्र हैं :-)

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  3. कहानी के अपने भाव अच्छे ठहरे ही साथ में अनुवाद भी इसे खास बनाने वाला हुआ...लिखित और अनुवादित भाषा एक ही लगती है...जो इस पोस्ट की खासियत है..आंचलिक भाषा की मिठास बनी रही करके...:)

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  4. मिठास बनी रही करके :-)

    कहानी पढकर फ़िर आऊँगा।

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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