Friday, April 1, 2011

उथों अगे फ़राक दियां मंज़लां सन...

एक पंजाबी कविता जिसका संशिप्तीकरण-भावानुवाद सा कुछ करने का प्रयास किया है, यकीन करिए ये भावानुवाद के पश्चात हिंदी में तो नहीं किन्तु अपनी मूल भाषा, पंजाबी, में उत्कृष्ट लगती हैं. तथापि आपसे भावानुवाद बाटने का लोभ संवरण नहीं हो पाया तो नहीं हो पाया. चूँकि अनुवाद केवल कुछ ही पंक्तियों का है सम्पूर्ण कविता का नहीं, और चूँकि इस कविता के पीछे एक कहानी चलती है अतः प्रस्तावना की आवश्यकता पड़ी...

..कहानी यूँ है कि एक लड़की जो शायद गाड़ी में या पैदल किसी स्थान से अपने घर जा रही हैं, उसके साथ उसका बेटा भी है इतने में उसे अपने नैनिहाल का कोई (दूर का शायद) भाई (वीर) मिलता है, लड़की पहली नज़र में ही बिछड़े हुए वीर को पहचान जाती है, लड़की पाठकों को उस 'वीर' के माध्यम से अपनी व्यथा बताती है, कि किस तरह उसके पिताजी ने अपनी मृत्यु के समय लडकी का विवाह लड़की से उम्र में काफी सयाने पुरुष से करने का वचन दे दिया. क्यूंकि मुसीबत के समय में उस सयाने पुरुष ने ही लड़की के पिताजी का हाथ थामा था. इस निर्णय से लड़की के 'नैनिहाल' वाले प्रसन्न नहीं होते फलतः लड़की से भी नाराज़ हो जाते हैं. किन्तु लड़की बताती है कि इसमें उसका कोई दोष नहीं. क्यूंकि पिताजी कि अंतिम आज्ञा का पालन करना ही उसका फ़र्ज़ था, यद्यपि उसके पति का उसके साथ विवाह होने से पूर्व पिछली पत्नी से एक बच्चा भी था तो भी.

जाते जाते लड़की अपने बिछड़े हुए वीर को और अपने नैनिहाल को दुआएं देती है....


' भाई' तुम कुजाह के तो नहीं?
तुम्हारा नाम शरीफ तो नहीं?
आगे से ही सोच रही हूँ दिखता बिलकुल उस सा है. .
आज का शुभ दिन, दिन न होकर मानो कोई किस्सा है.
खुदा कहीं नहीं है माना,
फिर-भी यहीं कहीं है जाना....
...तूने भी मुझको देखो तो, अब जाकर पहचाना है.
नियामत... ! याद है बचपन की, या अब भी कुछ याद आना है?
हाँ, आखिर, चलते कुओं में ही तो पानी रहता है.
मिलते रहने से ही आखिर रिश्तों का मानी रहता है. (वीर के उसे भूल जाने पर)
कभी वहाँ (नैनिहाल) जा जा कर भी मेरा मन नहीं भरता था,
अब वो सपने में भी आए तो उससे मन डरता था.
क्यूँ कर आखिर मेरी मामी भी मुझसे नाराज़ है.
प्रायश्चित का मूल वही है बढ़ता जाता ब्याज है.
बोलो तो, नानी के घर से कोई भला कुछ तोलेगी ?
लेकिन बाप के आगे आखिर कोई लड़की क्या बोलेगी?
और फिर सोचो, शरम का ताला, इसको कैसे खोलेगी ?
मेरे बाप का हाथ तो आखिर 'इन्होने' ही थामा था,
जाते-जाते उनके मुंह में 'इनका' नाम ही आना था.
ठीक है बेशक 'उनका' मेरा उम्र का कोई मेल नही.
लेकिन फिर भी वचन पिता का, वचन पिता का, खेल नहीं.
और फिर बाप की जो न माने वो भी क्या इंसान हुए?
बाप को भी तो अपने बच्चे मानो अपना प्राण हुए.
प्राण गए थे प्रण को लेकर लेकिन प्रण के प्राण रहे,
मैंने भी तब ये सोचा कि इन प्राणों का मान रहे.
मुझको यहीं उतरना है, तू भी आता अच्छा होता,
एक रात भूली बहना के घर खाता अच्छा होता.
ठीक है !तू, 'जीते रहना' ,
जीने से मिलना होता है.
मेरी ओर से उनसे (नैनिहाल वालों से) कहना,
अब भी कोई, उन्हें सोच के, कभी-कभी तो रोता है.



वीर तूं कुंजाह दा ऐ?
तेरा नां शरीफ़ ऐ?
अगे इ में आखदी सी लगदा ते उहो ऐ?
अज केहा नेक दिहाड़ा ,
रब्ब णे भरा मेल दित्ता ऐ,
मुंडिया! इह तक तेरा मामा ऐ,
मेनू तूं सिंझानिया ना होवे दा,
कदे निक्के हुंदे असी रल के खेडदे सां,
मेरा नां निआमते वे,
महिर नूर दीन दी में दोह्त्री आं,
मिलदिया दे साक णे ते वाहनदिया दे खूह णे,
कदे वरा-वरा उथे जा के रह आवीदा सी,
अज्ज उहना थांवां नूं वेखने नूं सहक्दी आं,
मेरे उतों पता इ जे मामी साडे नाल अफ्सोसी ऐ,
वीर दस इस विच मेरा की कसूर सी?
नानकिया नालो मेनू अग्गे थां किहडी सी?
मापिया दे अग्गे पर धीयाँ नहीं बोलदीयां,
वज्जे होए शर्मां दे जन्दरे ना खोलदीयां.
ओहना नूं जमीयां तों अग्गे शेय किहडी ऐ?
उहना दा उह बुरा कदे नहीं मंग सकदे,
थुडां दी धरेमिया ' च तिलक इंज पईदा ऐ ,
अखिया पियो नू जदो हार दे गईआं सन,
दुखां दियां साडे उते वाईं झुल पईआं सन,
नानके वी कन्नी खिसकान लग पाए सन,
तक के ते,
खिदने ड़ी थावें मुर्झान लग पए सन,
असी कच्ची आवी सी ते अग्ग पाई बुझदी सी,
उस वेले जडो कोई गल वी ना सुझ्दी सी,
हर शैय छड गयी,
ऐस दे पियु मेरे पियु दी बांह नप्प लई,
मरण लगा ऐस नूं जबान ओह दे गया.
में ते लै के बह गयी सां ऐस ख़्याल नू,
जग लायी सोंकण दे पीते होए दूध दे हंगाल नू,
मेरा सब्र कबूल कर लित्ता ऐ,
मेनू ऐ चन्न जेहा पुत दे दित्ता ऐ,
लै फेर में ते इत्थे लह बहिणा ऐ,
तुमीं की होयिया अज्ज इथे लह बहों खां,
इक रात भूली होई भैण दे वी कोल कल रहो खां,
हछा जग जीवंदियाँ दे मेले ने,
मेरे वलों सबनां नू बहुत-बहुत पुछना.

-शरीफ़ कुंजाही(गुजरात के कस्बे कुंजाह में १९१५ में जन्म हुआ,उर्दू और फारसी में भी लिखते हैं)




चलते चलते दो और भावानुवाद (मूल भाषा:पंजाबी)

बादल उड़े तो गुम आसमान देखा,
पानी उतरा तो अपना मकान देखा.

जहाँ पहुँच के उसका निशान देखा.

उसके सामने ये जग विराना था,
उसकी आँखों में ऐसा जहाँ देखा.

हमारे हाल की खबर वो रखता है,
सारी उम्र जिसको अनजान देखा.

काम वही 'मुनीर' मुश्किल था,
जिसे शुरू में बड़ा आसान देखा.

-मूल लेखक : मुनीर नियाज़ी(१९२८ में खानपुर जिला हुशियारपुर में जन्मे आजकल लाहौर में रहते हैं)


एक पूरा कमरा किताबों से भरा हुआ,
एक खाली टोकरी रोटियों वाली,
क्या 'ज्ञान' लूँ इन किताबों से,
जिससे मेरी टोकरी रोटियों से भर जाए,
जिससे मुझे और किताबें बेचने का कोई तनाव न हो?

-मूल लेखक : शाइस्ता हबीब (१९४९ में सियालकोट में जन्मीं  उर्दू में कविता रचती हैं  रेडियो पकिस्तान में प्रोडियूसर हैं)






मधानियाँ

3 comments:

  1. शानदार, बाद वाली दो के मूल रूप भी उपलब्ध करवा देते तो और मजा आ जाता।

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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