Thursday, March 24, 2011

अरूंधति-2



प्रतिवाद के स्वर कम हो रहे हैं, हमने सर्वाइवल का रास्ता चुन लिया है. असहमति की कोई जगह नहीं दिख रही. बल्कि हकीकत यह है कि अब असहमतियों का स्वागत के बहाने अब उनकी शिनाख्त कर उन्हें ठिकाने लगाया जा रहा है. ऐसे में उदय प्रकाश यंत्रणा और असहमति कि भाषा लिख कर सबसे अलग खड़े दिखाई देते हैं. 'अरूंधति' पर 'सोन के रेत में वह पैरों के चिन्ह छोड़ गयी है'... कि पहली कड़ी आप यहाँ भी पढ़ चुके हैं ... आज इसकी दूसरी और आखिर कड़ी... इस कड़ी में दो कवितायेँ हैं.


-1-

नोआखाली के समय मेरा जन्म नहीं हुआ था 
मुझे नहीं पता चंपारण में निलहे मजदूरों को 
इंडिगो कंपनियों के गोरे - मालिकों और उनके देशी मुसाहिबों ने 
किस कैद में रखा
महीने में कितने रोज़ भूखा सुलाया
कितना सताया कितनी यातना दी
उन तारीखों के जो विद्वान आज हवाले देते फिरते हैं मेले - त्योहारों में 
उनके चेहरे संदिग्ध हैं
उनकी खुशहाली मशहूरियत और ताकत के तमाम किससे आम हैं

मैं जब पैदा हुआ उसके पांच साल पहले से 
प्राथमिक पाठशाला में पढ़ाया जाता था कि मुल्क आज़ाद है 
कि इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के
कि दे दी हमें आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल

मैंने रामलीलाओं से बाहर कभी खड्ग असलियत में नहीं देखे न ढाल
साबरमती आज नक्शे में किस जगह है इसे जानते हुए डर लगता है 
रही आज़ादी तो मेरे समय में तो गुआंतानामो है अबुगरेब है 
जलियांवाला बाग नहीं जाफना है 
चैरा-चैरी नहीं अयोध्या और अहमदाबाद है

और यहां से वहां तक फैली हुई तीन तरह की खामोशियां हैं

एक वह जिसके हाथ खून में लथ-पथ हैं 
दूसरी वह जिसे अपनी मृत्यु का इंतज़ार है

तीसरी वह जो कुछ सोचते हुए 
आकाश के उन नक्षत्र को देख रही है जहां से 
कई लाख करोड़ प्रकाश-वर्षों को पार करती हुई आ रही है कोई आवाज़ 

इससे क्या फर्क पड़ता है कि किसी नदी या नक्षत्र 
पवन या पहाड़, पेड़ य पखेरू, पीर या फकीर की 
भाषा क्या है ?

-2-

वहां एक पहाड़ी नदी चुपचाप रेंगती हुई पानी बना रही थी
पानी चुपचाप बहता हुआ बहुत तरह के जीवन बना रहा था
तोते पेड़ों में हरा रंग भर रहे थे 
हरा आंख की रोशनी बनता हुआ दसों दृश्य बनाता जा रहा था

पत्तियां धूप की थोड़ी सी छांह में बदल कर अपने बच्चे को सुलाती
किसी मां की हथेलियां बन रही थीं
एक झींगुर-सप्तक के बाद के आठवें-नौवें-दसवें सुरों की खोज के बाद 
रेत और मिट्टी की सतह और सरई और सागवान की काठ और पत्तियों पर उन्हें 
चीटियों और दीमकों की मदद से 
भविष्य के किसी गायक के लिए लिपिबद्ध कर रहे थे

पेड़ों की सांस से जन्म लेती हुई हवा 
नींद,  तितलियां, ओर और स्वप्न बनाने के बाद 
घास बना रही थी
घास पगडंडियां और बांस बना रही थी
बांस उंगलियों के साथ टोकरियां, छप्पर और चटाइयां बुन रहे थे

टोकरियां हाट, छप्पर, परिवार 
और चटाइयां कुटुंब बनाती जा रही थीं

ठीक इन्हीं पलों में आकाश के सुदूर उत्तर-पूर्व से अरूंधति की टिमटिमाती मद्धिम अकेली रोशनी
राजधानी में किसी निर्वासित कवि को अंतरिक्ष के परदे पर 
कविता लिखते देख रही थी 
उसी राजधानी में जहां कंपनियां मुनाफे, अखबार झूठ, बैंकें सूद, लुटेरे अंधेरा
और तमाम चैनल अफीम और विज्ञापन बना रहे थे

जहां सरकार लगातार बंदूकें बना रही थी

यह वह पल था जब संसार की सभी अनगिन शताब्दियों के मुहानों पर 
किसी पहाड़ की तलहटी पर बैठे सारे प्राचीन गड़रिये 
पृथ्वी और भेड़ों के लिए विलुप्त भाषाओं में प्रार्थनाएं कर रहे थे 
और अरूंधति किसी कठफोड़वा की मदद से उन्हें यहां-वहां बिखरे 
पत्थरों पर अज्ञात कूट-लिपि में लिख रही थी

लोकतंत्र के बाहर छूट गए उस जंगल में 
यहां-वहां बिखरे तमाम पत्थर बुद्ध के असंख्य सिर बना रहे थे

जिनमें से कुछ में कभी-कभी आश्चर्य और उम्मीद बनाती हुई 
अपने आप दाढि़यां और मुस्कानें आ जाती थीं।

2 comments:

  1. जबर्दस्त कविताएं है..खासकर दूसरी..बार-बार पढ़ना इसे जैसे किसी गहरे और गहरे पानी मे डूबते जाने जैसा लगता है..लम्बे वक्त की इंतजार करना होता है..ऐसी कविताओं मे डूबने के लिये..उदयप्रकाश जी उदयप्रकाश क्यों हैं यह समझ आता है..
    साझा करने के लिये शुक्रिया सागर!!

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जाती सासें 'बीते' लम्हें
आती सासें 'यादें' बैरंग.

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